पथ के साथी

Saturday, May 7, 2016

635

1-माँ ऐसी ही होती है !
           -अनिता ललित 
माँ-नारी का सबसे ख़ूबसूरत व वंदनीय रूप! माँ शब्द में ही ऊँचाई और गहराई दोनों का आभास एक साथ होता है। उसका हर बोल मंत्रोच्चारण होता है और उसकी हर बात में जीवन-सार छिपा होता है! उसकी बोली से शहद व आँखों से ममता का सागर छलकता रहता है। माँ केवल देना जानती है। वह किसी काम के लिए 'ना' नहीं कहती,  वह कभी थकती नहीं। सवेरे सबसे पहले उठती है और रात में सबके बाद सोती है। उसके चेहरे पर कभी थकान नहीं दिखती। सबको अपनी चीज़ सही ठिकाने पर मिलती मगर माँ कभी एक जगह पर बैठी नहीं दिखती। कोमलतम भावनाओं से लिपटी माँ के सामने कड़ी से कड़ी, बड़ी से बड़ी, कठिन से कठिन समस्या भी अपना अस्तित्व खो देती है-माँ के पास हर मुश्किल की चाभी होती है। कपड़ों की सीवन में वह चुपचाप अपने ज़ख्मों को भी सी देती है, अपने आँसुओं के लेप से दिलों में पड़ी दरारों को भर देती है।
       बच्चे के कोख़ में आने के साथ ही माँ उसकी सुरक्षा में जुट जाती है। बच्चों की देखभाल करना माँ का काम नहीं वरन उसका स्वभाव होता है। बच्चों को क्या चाहिए यह बच्चों से पहले उसको पता चल जाता है। बच्चे अगर कष्ट में हों या बीमार हों, तो माँ को चैन नहीं आता, रातों को जाग-जागकर वह उनकी देखभाल करती है। भयंकर तूफ़ान हो या कड़ी धूप, माँ का आँचल बच्चों को अपने साये में सुरक्षित रखता है, उन्हें सुक़ून देता है। सबके ताने सुनती है, मगर बच्चों के लालन-पालन में कोई कोताही नहीं बरतती, कोई समझौता नहीं करती।
     सालों-साल गुज़र जाते हैं, माँ सोती नहीं ! बच्चों को पालने-पोसने में वह ख़ुद को भूल जाती है। फिर अचानक एक दिन उसे महसूस होता है कि उसकी चाल धीमी हो गयी है, घुटने दुखने लगे हैं, वह अक्सर चीज़ें रखकर भूलने लगी है, जल्दी थकने भी लगी है,और उसे महसूस होता है कि नींद उसकी आँखों का पता ही भूल चुकी है। बुनाई-कढ़ाई करते समय अब वह सुई में धागे से और गिरे हुए फंदे से काफ़ी देर तक जूझती रहती है। वह आवाज़ से कम और हाव-भाव से बातें समझने की कोशिश करने लगी है और उसकी प्रतिक्रिया भी धीमी पड़ने लगी है। तब वह देखती है कि उसके चेहरे पर उभरी लकीरों के नीचे दबे हुए पिछले कई वर्ष अपनी कहानी कहने लगे हैं, और पाती है, कि उसके बच्चों का क़द अब उसके आँचल से बड़ा होने लगा है। उसके बच्चे अब उसके पास ज़्यादा देर तक नहीं रुकना चाहते, ज़िन्दगी की रेस में दौड़ते हुए उनके क़दमों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वे उसके पास कुछ देर को ठहर सकें, उसकी बातों को सुन सकें, समझ सकें, उसकी छोटी-छोटी, सिमटी हुई ख़्वाहिशों को पूरा कर सकें। अपने कोमल कन्धों और एक पैर से फिरकी की तरह नाचते हुए, पूरे परिवार की इच्छाओं को पूरा करने वाली माँ अब आत्मग्लानि से भर उठती है ! बच्चों के आँसू पोछने वाली, उनका मनोबल बढ़ाने वाली माँ अब बात-बात पर बच्चों के सामने अपनी बेबसी पर रो पड़ती है। फिर भी वह ढलती उम्र से उपजी अपनी अस्वथता को अपनी कमी समझकर उसी को कोसती है अपने बच्चों की स्वार्थपरता को नहीं! -माँ ऐसी ही होती है !
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2-माँ तो हल्दी-चन्दन है!
-अनिता ललित 

बातें उसकी फूलों जैसी, दिल ममता का आँगन है।
हर दर्द की दवा वो मीठी, माँ तो हल्दी-चंदन है।

स्वर्ग ज़मीं पर उतराऐसा माँ का रूप सलोना है 
सजदे में झुक जाए ख़ुदा भी , माँ की बोली वंदन है ।

माँ की बातें सीधी-सादी, चाहत उसकी भोली है 
घर-बच्चों की हर ख़्वाहिश पर, करती कुर्बां जीवन है । 

अपने आँचल को फैलाकर , जीवन को महकाती है 
शोलों पर वो चलती रहती, आँखों में भर सावन है । 

उसके सपनों की लाली से, खिला सुबह का सूरज है 
साँझ ढले क्यों भूली हँसना, क्यों खोया-खोया मन है

ढलती उम्र सुनाती क़िस्से, माँ की पेशानी पर है 
पपड़ी से झरते रिश्ते, बचती यादों की सीलन है । 

क़िस्मत वाला वो दर होगा ,जिस घर माँ खुश रहती है 
नूर ख़ुदा का उस पर बरसे, वो पावन वृन्दावन है। 
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3-मेरी  माँ – पुष्पा मेहरा 

आकाश का विस्तार माँ
तेज लिये सूर्य  का
चन्द्र का मधु हास माँ !
आँधियों में उड़ती धूल बीच
नन्ही बूँदों की लड़ियाँ सरीखी
ममता की शीतल धार माँ ,
धरा सी उदार माँ ।

ज्ञान की संवाहिका
कर्तव्य की है धुरी
मन के स्नेहिल गोंद से
जोड़ती रिश्तों की लड़ी
दूसरों के दुःख –दर्द को
निज मान कर
ज़ख्म में मरहम सरीखी,
मान में मनुहार माँ ।

खुद खरहरी खाट लेती
बच्चों को गद्दों पर सुलाती
स्वयं भूखे पेट सोती
बच्चों को भर पेट खिलाती
आह की इक आवाज सुन
रात भर है जागती ,
वक्त का हर वार सहती
बुराइयों से दूर रहती
सुहृद जनों की भीड़ में
तन्हाइयों से घिरी हुई
मन में सारे राज़ रखती
सागर की गहन गहराई  माँ ।

रातरानी की कोमल कली सी
भरपूर खिलने को आकुल
फूल के समरूप
पंखुरी-पंखुरी से उड़ती
अदृश्य-निर्बंध सुरभि का
मधुर- कोमल अहसास माँ ।

मेरे रक्त की हर बूँद माँ
ध्यान-जप,पूजा-अर्चना
मन की वन्दना सारी हमारी -
माँ ही माँ  ...... माँ ही माँ ।
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Pushpa .mehra @gmail .com




Monday, May 2, 2016

634

1-आँसू छंद : डॉ ज्योत्स्ना शर्मा
1
जब यादें संग तुम्हारी
मैं हँसती ,मुसकाती हूँ
तुम दे जाते हो पीड़ा
मैं उसको भी गाती हूँ ।
2
सुख-दुख समभाव मुझे सब
गम ख़ुशियों का डेरा है
अब लेश न मुझमें मेरा
जो शेष बचा तेरा है ।
3
ये कड़ी धूप छाया दे
कंकड़ -कलियाँ राहों में
इतने निष्ठुर मत होना
संगीत सुनो आहों में ।
4
मिलना तो मुझको वो ही
जो क़िस्मत का लेखा है
सीपी या रजकण आगे
बूँदों ने कब देखा है ।
5
मैं गिरती हूँ उठती हूँ
लहरों के संग नदी सी
बस मूक न सह पाऊँगी
इस बीती त्रस्त सदी सी ।
6
पूजन-वंदन कब चाहा
हाँ ! मर्यादा रहने दो
मत रोको पथ मेरा भी
अविरत ,अविरल बहने दो
7
इतना चाहा पूरा हो
हर सुंदर स्वप्न तुम्हारा
ओ प्रेम पथिक यूँ तुमपर
सर्वस्व लुटा मन हारा ।
8
निर्मम दुनिया जीने का
आधार तुम्हीं से मेरा
मन के सच्चे मोती हो
शृंगार तुम्हीं से मेरा ।
-0-
2-दोहे-आभा सिंह
1
नदिया दुबली हो रही, जल जैसे आभास।
नेह सरसता खो रही,उचट रहा विश्वास ॥
2
गरमी चैन बुहारती,धूप बनी मुँहजोर ।
हलक सुखा बेरहम,लू-लपटें झकझोर
 3
गरमी का कर्फ़्यू  लगा,सूनी गलियाँ ,बाट।
सुबह दुपहर घूम रही,ले आँधी की हाट ॥
4
गरमी की थीं छुट्टियाँ,ख़ूब मनाई साथ ।
गाने गप्पें हुड़दंग,और ताश के हाथ ॥

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Friday, April 29, 2016

633

क्षणिकाओं की चमक
डा. सुरेन्द्र वर्मा
अंगरेजी में एक कहावत है, the small is beautiful. ‘मन के मनके’  में संगृहीत डा. सुधा गुप्ता की छोटी- छोटी सुन्दर कविताएँ भी अंग्रेज़ी की इस कहावत को चरितार्थ करती हैं । सुधा जी ने इन कविताओं को ‘क्षणिकाएँ ’ कहा है । लघुकाय कविताओं के लिए ‘क्षणिकाएँ ’ शब्द अब काफी प्रचलित हो चुका है । हर छोटी कविता हिन्दी में आज क्षणिका कह दी जाती है, फिर भले ही उसमे कविता की चमक हो या न हो. लेकिन सुधा जी ने क्षणिका शब्द को गरिमा प्रदान करते हुए अपने इन नन्हें कविता-‘मनकों’ को उदारतापूर्वक क्षणिका ही कहा है । उनकी ये कविताएँ कविता-समय के तागे में गुँथी, समय को सार्थक करती और अपनी चमक से चमत्कृत करती  वस्तुत: ‘क्षणिकाएँ ’ ही हैं ।
     डा. सुधा गुप्ता की इन छोटी छोटी कविताओं में जहाँ  दिल के आतिशदान में चटखती यादों की तपिश है, वहीं स्वीट-पीज़ की महक भी है । जहाँ  हाल ही में रोकर चुप हो गए बच्चे की हिचकियाँ हैं, वहीं किसी की याद की सिसकियाँ भी हैं । इनमे जहाँ  अनमनी सी धूप है तो किसी अनचीन्हे पंछी की टीसती सी आवाज़ भी है । यहाँ बिटुर- बिटुर करती काली मखमली मैना की कसकती चीख है, गुलदान में ताज़ा खिला-सजा गुलाब है और फिर भी  कवयित्री का मन न जाने क्यों उदास है । ऐसी ऐसी विसंगतियां और ऐसी ऐसी यादें हैं कि मन एक साथ सिंदूरी लाल और वासंती पीला हो जाता है । प्यार की न जाने कितनी अनुभूतियाँ मन पटल पर बिखरी पडी हैं जिन्हें जितना ही भुलाया जाता है उतना ही वे याद आती हैं ।
   स्मृति की तो पचासों तह हैं ।
सोनाली धूप में
अनमनी सी ऊंघ गई
खुलता गया
  स्मृतियों की मलमल का थान
खुलता गया.....खुलता गया
पचासों तहें   (पृष्ठ 37)
तुम्हें विदा कर
ज्यों ही मुडी देहरी के पार
एक साथ यादें आने लगीं
 कदम ताल  (पृष्ठ 16)
मुद्दत बाद
 तुम्हारे शहर आना हुआ
सब कुछ वही था
जस का तस
सिर्फ तुम न थे
 (पृष्ठ 11)
कुछ नई कुछ पुरानी यादों के अहसास आज भी कितने सुरक्षित हैं दिल में –
चालीस साल पुराने
माँ के हाथों बुने 
दस्ताने पहनकर
 करती हूँ अहसास
माँ की नर्म नर्म हथेलियों का   (पृष्ठ 79)
वहीं कुछ ऐसे भी अहसास हैं जिन्हें ‘मृग-जल’ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । आखिर किसी याद का ही तो भ्रम हुआ है फिल्वक्त । ‘विशफुल थिंकिंग’ (कल्पित इच्छा-पूर्ति) का एक खूबसूरत पल -
हौले से
   तुमने
     तपता मेरा हाथ
छुआ...और पूछा-
अब कैसी हो ?
....झपकी आई थी !   (पृष्ठ 31)
हाय, कितनी बेरहमी !
दिल के आतिशदान में
चटखती यादें
तपिश तो ठीक है
मत बनों बेरहम इतनी
मेरी दुनिया ही जल जाए (25)
ऐसे में कौन भला यादों के गलियारे में जाए-
स्वीट पीज़ की गंध...
आती है कोई महक भरी याद
हौले हौले दरवाज़ा खटखटाती है-
न, नहीं खोलूंगी  
खुश हुआ जाए या दुखी, कौन जाने ! सारी स्थितियां विरोधाभासी है, विसंगत हैं ।तभी तो “ताज़ा खिले / गुलाब / गुलदान में सजा कर / उदास हो जाती हूँ” (पृष्ठ 103
खुशनुमा शाम
   फूलों की भीड़
 वहशत भरा मन
बढ़ती बदहवासी
  कैसी विसंगति है ! (56)
यह विसंगति ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा बन चुकी है और शायद समाज का भी जिसमे रहने के लिए हम अभिशप्त हैं-
ज़िंदगी एक चुइंग गम-
शुरू में थोड़ी सुगंध-थोड़ी मिठास
 बाद में फींकी, नीरस, बेस्वाद
बस चबाते रहने का 
बेमतलब प्रयास   (53)
हाथों में
  आरी कुल्हाड़ी
                                                                                    लेकर आए हैं -  पूछते हैं –
                                                                            
कैसे हो दोस्त ?     (103)
लेकिन  कवयित्री को यह रवैया पसंद नहीं है । उनके मन में तो प्यार बसा है । प्रेमानुभूतियों से वे सराबोर हैं । भले ही प्रेमाभिव्यक्ति कितनी ही दूभर क्यों न हो अंतत: किसी भी घायल मन का उपचार सिर्फ प्रेम ही हो सकता है ।  प्रेम के प्रति विनत होना ही प्रेम को पा जाना है । केवल प्रेम में ही मैं और तुम का द्वेत समाप्त हो सकता है । प्रेम की यात्रा तो सिर्फ तुम से तुम तक है । “मैं” के लिए वहाँ  कोई स्थान ही नहीं है ।
घायल मन लिए
फिरी बरसों      तेरी एक झलक       सारे ज़ख्म पूर गई   (67)
मैं तुम से मिली

ऐसी कि मेरी ज़िंदगी

सिर्फ रह गई

तुम से तुम तक    (85)
रूठती हूँ तुमसे (मन ही मन)
मान करती हूँ (मन ही मन )

 पछाड़ खा, फिर आ गिरती

अवश हो तुम तक     (86)
निवेदिता मैंझुकी रही, झुकती गई

तुम मुस्करा दिए...
 माँगो
...जो चाहो ...
आह! वह एक क्षण!
चेतना खो बैठी ! अभागी मैं
क्या और कैसे मांगती ? (93)
जितना ही भुलाना चाहती हूँ
 तुम्हें मैं         उतना ही और ज़्यादा याद आते हो
 मीठे सपने जैसे
किसी प्यारी गंध की तरह
 मेरे मन में बसे चले जाते हो
 प्राणों में रचे जाते हो...  (60)
तीन  या चार ?
 हाँ, चार कागज़ लिखकर
फाड़ फेंके
पर लिख न पाई
दो पंक्ति की चिट्ठी
आखिर क्या लिखना चाहिती थी मैं !   (45)
डा. सुधा गुप्ता के इन काव्य-मनकों में प्यार और सिर्फ प्यार लिखा है । प्यार है,प्यार की यादें हैं, प्यार का दर्द है और प्यार की टीस है । प्यार के सोपान हैं, हवा है बरसात है । फूल हैं, गुलाब है । चिड़ियाँ हैं और उनका कलरव और उनकी पहचान है !
    सालिम अली बर्ड-वाचिंग (पक्षी अवलोकन) के लिए भारत में प्रसिद्ध हुए हैं । बर्ड-वाचिंग में तो डा. सुधा गुप्ता की भी ज़बरदस्त दिलचस्पी है । लेकिन इस क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्ययन का उनका कोई इरादा नहीं है बल्कि उनकी काव्यगत अभिरुचि ने उन्हें इस ओर प्रेरित किया है । वसंत के बहाने न जाने कितनी चिड़ियों की पहचान उन्हों ने की है ।  शकखोरा, फूलचुही, गुलदुम, दरजिन और पीलक । (इनमें से कितनों के नाम सुने हैं, आपने) -
आ गए / मौज मस्ती के / दिन / शकर खोरा और / फूलचुही के (दिन)
गुलदुम / ...दम मारने की / फुरसत नहीं / आने वाले मेहमान की / तैयारी में जुटी
दरजिन से पूछों.../चोंच सलामत / सीने में पटु / दो पत्तों को जोड़ /बनाएगी आशियाना
चटक सुनहरी /  ..शर्मीली पीलक / हवा में गोते लगाती / पेड़ों पर खोज रही / खिले फूलों में मकरंद     (पृष्ठ,87-88)
     इसी तरह का एक और पक्षी अवलोकन --
नन्हीं गौरैया / अनार की शोख टहनी पर / बैठी / चोंच से पर खुजला / इधर उधर ताका / न जाने क्या सोचा / उड़ गई !... इतनी बड़ी दुनिया में / कितनी / अकेली नन्हीं गौरिया     (118)
    डा. सुधा गुप्ता अपनी इन क्षणिकाओं के ज़रिए जगह जगह पर हमें औचक, आश्चर्य में डाल देतीं हैं –बहुत कुछ इस तरह  -
अभी भोर थी / दस्तक पडी / खोला जो द्वार / हर्ष का न रहा / पारावार / वसंत खडा था !  (पृष्ठ 14)
बार बार, लगातार / खोला जो द्वार / देखा, / भूली सी हवा / ठिठकी खडी / सांकल बजा रही थी  (पृष्ठ 70)
एक मुट्ठी भर हवा /एक झोंका भर खुश्बू /एक घाव भर दर्द /अंजुरी भर प्यास /थाम कर खडी हो गई बरसात /मेरे दरवाज़े ... (39)  
   डा, सुधा गुप्ता की यही खूबी है, वह कविता में नए दरवाज़े खोलती हैं और नए नए दृश्य दिखाती चलती हैं. पाठक अविभूत हो जाता है.
    और अंत में । ‘मन के मनके’ की इसी शीर्षक से प्रस्तावना लिखते समय उदारमना  कवयित्री ने मुझे स्मरण किया, इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ । उन्हों ने लिखा है, ‘वरिष्ठ कवि /रचनाकार डा. सुरेन्द्र वर्मा का कविता संग्रह  ‘उसके लिए’ (प्रकाशन वर्ष 2002) अपने भीतर बहुत ढेर-सी सुन्दर, प्रभावी क्षणिकाएँ  समेटे हुए है; यद्यपि नाम (पुस्तक का) कविताएँ ही है।" । कोई भी रचनाकार ऐसी टिप्पणी पर ‘धन्यवाद’ कहकर आभार से विमुक्त नहीं हो सकता । मैं भी नहीं होना चाहता ।  
[‘मन के मनके’ (काव्य संग्रह) / डा. सुधा गुप्ता / अयन प्रकाशन 1/ 20 नई दिल्ली- 110030, पृष्ठ: 136/,मूल्य रु. 200/-]
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 डा. सुरेन्द्र वर्मा ,10, एच आई जी,1, सर्कुलर रोड   इलाहाबाद -211001

मो. 9621222778