रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
17
हाथ सब्रो-क़रार का छूटा तेरी गली में ।
पैमाना छलकते प्यार का फूटा तेरी गली मे॥
जब मिले आज तुम मुझे अजनबी की तरह ।
टूटा हुआ साज़ और टूटा तेरी गली में ॥
18
बेमुरव्वत पर हम अपनी जाँ निसार क्या करें ।
चन्द लम्हात को भला झूठा प्यार क्या करें ॥
झुककर जिसकी फिर उठ नहीं पाई नज़र ।
पत्थर के उस बुत का दीदार क्या करें ॥
19
ज़िन्दगी के सब अहसास मिटा दिए मैंने ।
अपने मज़ार के चिराग़ खुद बुझा दिए मैंने ॥
मौत से छूटे तो हमें ज़िन्दगी ले डूबी ।
बुते काफ़िर पर सभी सज़दे लुटा दिए मैंने ॥
20
अफ़साना आँसुओं का सुनता रहा ज़माना ।
अफ़सोस कि तुम भी बेरहम हो गए हो ।
मुझको नहीं गवारा तेरा नज़रेंचुराना॥
21
चार घड़ी की ज़िन्दगी में जुल्मो-सितम ढाता है तू॥
बन सका न गर तू किसी के दर्द की मीठी दवा ।
जन्म देने वाली माँ की गोद क्यों लजाता है तू ॥
22
सिर्फ़ ईश्वर का नाम ही दु:ख-दर्द भागा देता है।
पशु को करें प्यार तो बाजी जान की लगा देता है ॥
कितना ही करो उपकार चाहे प्राण भी दे दो ।
पर हाय रे पापी इंसान तू फिर भी दगा देता है ॥
23
रोने में क्या धरा और क्या फ़रियाद करने में ।
क्या मिलेगा चाँद तुझे किसी को याद करने में ॥
अपने हाथों आशियाँ को तू लगादे आग ।
तड़पना ही मिलेगा तुझे दिल को आबाद करने में ॥
24
गहन अँधियारे में भी दीपक सदा अकेले जलता ।
नीरव नीले महाकाश में सूरज इकला चलता॥
सोता है संसार रात में चाँद जागता इकला ।
शैल-शृंग पर हिमखण्ड भी चुपके-चुपके गलता ॥