पथ के साथी

Monday, May 27, 2019

905-लिखना चाहती हूँ


प्रियंका गुप्ता

मैं
लिखना चाहती हूँ
चन्द पंक्तियाँ
उन स्त्रियों के बारे में
जो खोई हुई हैं-
गुँथे हुए आटे में,
हल्दी मसाले से गंधाते हुए
कपड़ों में,
बन्द संदूकची के तालों में,
मकड़ी के जालों में...
स्त्रियाँ-
जो कभी कभी
ढूँढ लेती हैं 
अपने बच्चों के बस्ते में
छुपे- दबे अपने बचपन को-
जो तभी
कुकर से आती
 सीटी की आवाज़ से चौंककर
फिर लुका जाता है
सिंक के जूठे बर्तनों में...
मैं लिखना चाहती हूँ
कुछ पंक्तियाँ
खो हुए वजूद वाली 
औरतों के लिए
पर सच तो ये है
कि
वजूद मिल भी जाए तो क्या?
उन्हें ओढ़ने के लिए
औरतें कहाँ मिलेंगी...

904


रमेशराज

कहीं पर आँख में लालच कहीं दृग-बीच पानी है
वही टीवी का चक्कर है, वही फ्रिज की कहानी है।

न ला साथ जो भी धन , बहू कुलटा-कलंकिन है
न जीवन-भर बिना दौलत पुकारी जा रानी है।

कहाँ स्टोव ने इक दिन बहू से इस तरह हँसकर
खतम तेरी लपट के बीच ही होनी जवानी है।

दहेजी -दानवों ने कब समय का सार समझा ये
कि उनकी लाडली भी तो कभी ससुराल जानी है।

पिता को उलझनें भारी जहाँ बेटी सयानी है
जहाँ पर है जवाँ बेटा वहाँ पर बदगुमानी है।
-0-

Friday, May 24, 2019

903


रामेश्वर  काम्बोज  'हिमांशु'
मुक्तक 

1
स्वर्ग नरक की बात करो मत,ये इस धरती पर होते हैं।
जहाँ खुशी हो स्वर्ग वहीं है,सदैव नरक जहाँ रोते हैं।
अपने वश में ये कब आए,थी डोर दूसरे हाथों में
खुशियों की राहों  में  आकर,अपने ही काँटे बोते  हैं।
2
पत्थर से टकराओगे तो अपना ही सिर फोड़ोगे।
नए घाव अपनी क़िस्मत में तुम फिर खुद ही जोड़ोगे।
हर सच को भी झूठ समझना शामिल उनकी फितरत में
लोहा होता मुड़  ही जाता पत्थर कैसे मोड़ोगे।
जो कहते हैं लोकतन्त्र  में खून बहाएँगे
समझो ये जनता से भी अब जूते खाएँगे।
लोकतंत्र में चोर व डाकू   जो मिल एक हुए
इनको डर कि हार गए तो जेल में जाएँगे।
-0-
त्रिपदी
समय बड़ा मुँहजोर  अश्व रे मन !  वल्गाएँ कमज़ोर बहुत
जितना इनको हम हैं हेरते ,उतने बेलगाम हुए हैं
जितनी कोशिश की  थी हमने उतने ही नाकाम हुए हैं।

Saturday, May 18, 2019

902-अनुभूति



सत्या शर्मा 'कीर्ति'

बुद्ध ना सिर्फ कपिलवस्तु में थे  और 
न ही  कुशीनारा में , 
बल्कि  वे सदैव से थे 
मेरे भी मन की सुप्त गुफाओं में
क्योंकि महसूस की है मैंने भी
वह असहनीय वेदना जो
बूढ़े , बीमार और लाचार को देखकर उमड़ती है
गरीबों की दयनीयता मुझे भी 
 झकझोरकरके रख देती है
मृत्यु अनेकों प्रश्न 
उठाती है मेरे भी भीतर
हाँ , कई बार सांसारिक सुखों
से ऊबकर मेरा भी मन भर जाता है वितृष्णा से 
और चाहती हूँ मैं भी
कभी जागूँ सारी रात
मणिकर्णिका के घाट पर और
निर्बाध जलती चिताओं से
पूछूँ मोक्ष का  मार्ग
या/ मोहमाया का त्याग कर
किसी निर्जन गुफा में
लीन हो जाऊँ ब्रह्म साधना में
कई बार रातों की नीरवता में
ब्रह्मसाक्षात्कार की तीव्र
उत्कंठा जाग जाती है मुझमें भी
किन्तु पाती हूँ 
स्वीकार नहीं है मुझे बुद्ध होना
मुझे तो ज्ञान की तमाम अनुभूतियों के बाद भी
आकर्षित करती है
सांसारिक मृगतृष्णा
मुझे आकर्षित करते हैं 
माया के अनेकों प्रलोभन
तभी तो गहन ज्ञान के उच्च शिखर पर भी
क्षणिक भौतिक सुख 
अपनी बाहें पसारे बुलाती है मुझे 
और फिर अपने अंदर के बुद्ध
को छोड़ आना चाहती हूँ किसी दिन 
उसी बोधिवृक्ष के नीचे
क्योंकि पाया है मुझमें 
धैर्य नहीं 
जो परम् सत्य तक ले चले मुझे
और मैं इसी क्षणिक सुखों 
के पीछे चल पड़ती हूँ
कदम दर कदम
अनन्त यात्रा पर।

Thursday, May 16, 2019

901-नवगीत



आओ खेलें गाली- गाली।
डॉ.शिवजी श्रीवास्तव

लोकतन्त्र का नया खेल है
आओ खेलें गाली -गाली।

भाषा की मर्यादा तोड़ें,
शब्द -वाण जहरीले छोड़ें,
माँ -बहिनों की पावनता के
चुन-चुनकर गुब्बारे फोड़ें।
उनकी सात पुश्त गरियाएँ
अपनी जय-जयकार कराएँ
चतुर मदारी- सा अभिनय कर
गला फाड़ सबको बतलाएँ,

हम हैं सदाचार के पुतले,
प्रतिपक्षी सब बड़े बवाली।

चलो हर की फसल उगाएँ
जाति- धर्म की कसमें खाएँ,
कल- परसो चुनाव होने है,
कैसे भी सत्ता हथियाएँ ,


जनता को फिर से भरमाएँ,
कठपुतली की तरह नचाएँ ,

नंगों के हमाम में चलकर,
ढोल बजाकर ये चिल्लाएँ-
मेरे कपड़े उजले- उजले
उनकी ही चादर है काली।

खेल पसन्द आए तो भइया,
सभी बजाना मिलकर ताली।
-0-2,विवेक विहार,मैनपुरी(उ०प्र०)- 205001     



Sunday, May 5, 2019

900



1-ज्योत्स्ना प्रदीप
1-हरिगीतिका
(प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ, 16 तथा 12 मात्राओं के बाद यति तथा अन्त में लघु-गुरु वर्ण अवश्य होता है। कहीं-कहीं पदों में यति 14-14मात्राओं पर भी हो सकती है ।)

सहमी नदी

सहमी नदी यह देख के,हर रोज पादप हैं घटे ।।
नग चीख भी सुन लो कभी,पल में हिया उसका फटे ।।
दिखता नहीं खग खेत में,सब रेत से सपने झरे ।।
अब मोर भी चितचोर ना,दिखते नहीं घन वह भरे ।।
खिलते नहीं अब फूल भी,बस शूल ही मन में उगे ।।
अब हंस ना बसते नदी,सर, ताल सीपिज ना चुगे ।।
कर दो भला फिर से ज़रा,तुम बीज भूतल रोप दो ।।
धरती भली कितनी छली,उसको कभी मत कोप दो ।।
युग कौनसा अब आ गया,तम छा गया फिर से घना ।।
मिटती नहीं अब पीर ये,रघुवीर हे कर दो दया!
-0-
2-दोधक
(यह 11 वर्ण का छन्द है ।[तीन भगण (211+211+211और दो गुरु 2+2होते हैं)

प्रीत भरा यह मास निराला ।
माधव झूम रहा मतवाला ।।
रंग सजे बिखरे हर डाली ।
गीत न बुनती हरियाली।।
-0-
3—तोटक छंद
 (चार सगण  112 =कुल 12 वर्ण-चार चरण)

बिन चाँद कभी जब रात रहे ।
किससे मन की यह बात कहे ।
तम चीर हिया फटता रहता ।
मन ने सब भीतर घात सहे ।

शशि के बिन जीवन सार नहीं।
अब ना प्रभ की रसधार कहीं।
हरसा हिय साजन से अपना ।
फिर भी छिपता उस पार कहीं ।।

मनभावन साजन आस करूँ ।
अब चंद्र बिना कित साँस भरूँ ।।
अब आ प्रिय जीवन दे मुझको ।
फिर से अधरों पर हास धरूँ ।।

-0-
गीत- मंजूषा मन 

फिर मिलूँ मैं न मिलूँ दीदार तो कर लो।
आखरी है ये मिलन अब प्यार तो कर लो।

ढ़ल रहा जो समय ये तो फिर न आएगा,
साथ मेरा ओ सनम तू फिर न पागा।
एक सपना आँख का साकार तो कर लो।
                 आखरी है.......

दीप मन का प्रज्वलित है अब बुझाओ भी,
गीत मैंने इक लिखा है गुनगुनाओ भी।
मौन में जो स्वर बसे गुंजार तो कर लो।
                 आखरी है........
प्रेम की चौपाइयाँ अब गा न पाऊँ मैं,
है यही अच्छा कि तुझको छोड़ जाऊँ मैं।
तुम मुझे उठकर विदा इस बार तो कर लो।
                  आखरी है........
फिर मिलूँ मैं न मिलूँ दीदार तो कर लो।
आखरी है ये मिलन अब प्यार तो कर लो।
-0-

Friday, May 3, 2019

899


रमेशराज

 1-शृंगारिणी छंद (राजभा X4=यानी 212+212 + 212+ 212)]

1
आपने नूर की क्या नदी लूट ली 
गीत के नैन की रोशनी लूट ली
क्या यही आपकी है समालोचना  ?
शब्द के अर्थ की ज़िन्दगी लूट ली

ऐ कहारों कहो क्या हुआ हादिसा  !
आपने तो नहीं पालकी लूट ली ?
पांडवो आज भी आपकी भूल से  
कौरवों ने सुनो द्रौपदी लूट ली !

-0-
2-दोधक ( भानस X3+2+2 यानी 211+211+211+2+2)

देख न पूनम-मावस गोरी
रास रचा, अब लै रस गोरी।
मेल-मिलाप भयौ पल कौ ही
प्यास रही जस की तस गोरी।

प्रेम-पगे मन मे विष फैले
नागिन-सौ तन लै डस गोरी।
गा अब गा नवप्रेम-कथा को
भानस भानस भानस गोरी।
-0-