प्रियंका गुप्ता
मैं
लिखना
चाहती हूँ
चन्द
पंक्तियाँ
उन
स्त्रियों के बारे में
जो
खोई हुई हैं-
गुँथे हुए आटे में,
कपड़ों
में,
बन्द
संदूकची के तालों में,
मकड़ी
के जालों में...
स्त्रियाँ-
जो
कभी कभी
ढूँढ
लेती हैं
अपने
बच्चों के बस्ते में
छुपे-
दबे अपने बचपन को-
जो
तभी
कुकर
से आती
सीटी की आवाज़ से चौंककर
फिर
लुका जाता है
सिंक
के जूठे बर्तनों में...
मैं
लिखना चाहती हूँ
कुछ
पंक्तियाँ
खोए
हुए वजूद वाली
औरतों
के लिए
पर
सच तो ये है
कि
वजूद
मिल भी जाए तो क्या?
उन्हें
ओढ़ने के लिए
औरतें
कहाँ मिलेंगी...?