स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
डॉ कविता भट्ट
रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न
सभा में प्रिय तुम आना
सतरंगी विश्राम- भवन
से कभी नहीं जाना
आज तक कभी मैंने मन का द्वार नहीं उढ़काया
अहं-सांकल न चढ़ाई न ताला कभी लगाया
खुले झरोखे बिछे प्रेम दरीचे सजे दर्पण
देखो सीढ़ी चढ़कर, खाली राजा का आसन
नवकुसुमित अधर लिये हूँ शोभा तुम्ही बढ़ाना
पदचाप रहित मंद-मंद पग-पग बढ़ते जाना
युग बीते प्रेम घट रीते, इन्हें
भरते जाना
कभी रनिवास जीते, षोडश शृंगार सजाना
सप्त सुरों की ध्वनियों में गलबहियाँ पहनाना
रोम-रोम झंकृत हो ऐसा तुम साज बजाना
रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
सतरंगी
विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना