पथ के साथी

Tuesday, December 5, 2017

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स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
डॉ कविता भट्ट

रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
सतरंगी विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना

आज तक कभी मैंने मन का  द्वार नहीं उढ़काया
अहं-सांकल  न चढ़ाई न ताला कभी लगाया

खुले झरोखे बिछे प्रेम दरीचे सजे  दर्पण
देखो सीढ़ी चढ़कर, खाली राजा का आसन

नवकुसुमित अधर लिये हूँ शोभा तुम्ही बढ़ाना
पदचाप रहित  मंद-मंद पग-पग बढ़ते जाना

युग बीते प्रेम घट रीते,  इन्हें भरते जाना
कभी  रनिवास जीते, षोडश शृंगार सजाना

सप्त सुरों की ध्वनियों में गलबहियाँ पहनाना
रोम-रोम झंकृत हो ऐसा तुम  साज बजाना

         रात्रि-प्रहर की  इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
 सतरंगी विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना