पथ के साथी

Saturday, October 10, 2015

अजनबी शहर



1-ज्योत्स्ना प्रदीप
क्षणिकाएँ
1
वो बुज़ुर्ग है !
नहीं......,
उसकी छत्र-छाया में
बैठो तो सही
आज के तूफानों से  बचाने वाला
वो ही तो
मज़बूत दुर्ग है ।
2
 कुछ !रिश्ते
कितने आम हो गए  !
बस हस्ताक्षर से ही.
 तमाम हो गए !
3
महानगर की
वो छोटी- सी लड़की
पता भी न चला.
जाने कब
बड़ी हो गई ?
किसी विरोध में
भीड़  के साथ
वो भी खड़ी   हो गई !
-0- 


2-अमित अग्रवाल
 अजनबी शहर

अजनबी शहर की
बेदर्द भीड़ के बीच
कोई अपना सा लगा तो,
मैंने मीत  कहा था. 
बेगानी इस दुनिया में
जब दर्द बाँटता मेरे 
सहलाता ज़ख्मों को,
मैंने प्रीत कहा था.
गिर-गिर के सँभलने का
अहसास अनोखा था
छोटे से उस पल को,
मैंने जीत कहा था. 
सूने दर पे मेरे
वो दस्तक अजीब थी
हल्की सी उस आहट को,
मैंने गीत कहा था.  

-0-
3-इन्दु गुलाटी
राहें

कभी खामोश और
कभी  चीखती इस राह में
एक ठहराव  एक शून्य सा है
जो पर उठता- सा प्रतीत होता है
जैसे  हल्की सी  खाली सी
ज़िन्दगी स्वयं ही तैरती जा रही हो
डोलती नाव की तरह---
जैसे हल्की- सी  खाली- सी
ज़िन्दगी स्वयं ही उड़ती जा रही हो
आवारा बादल की तरह---
यह पानी और धुएँ की रेखा
धुँधले निशाँ छोती जाती है
जो इन खामोश और चीखते
क्षणों में ग़ुम हो जाते हैं
पर हलचल -सी मचा जाते हैं
एक समतल सतह पर
आने वाली सभी रेखाओं
का मार्ग रोकते हुए