पथ के साथी

Wednesday, July 10, 2013

नदियाँ बस खामोश


मंजुल भटनागर

समुन्दर उछाल मारता ,
कहता बरबाद दरीचों का अफ़साना
नदियाँ बस खामोश हैं ।

शहर लापता थे
घरौन्दे जमींदोज़
वो कौन लापता था ,पता चला आया जब होश
समुन्दर उछाल मारता,
नदियाँ बस खामोश हैं ।

बोधिसत्व भी जल उठा ,
लहू बन कैनवस रंग चुका
यह कौन दर्द बाँट रहा , प्रकाश- पुंज ढाँप रहा
फिर भी बुद्ध खामोश है ।

फुहारें हैं, सावन पुरजोर है
रास्तों में उगी टहनियों की कहानी कुछ और है
फूल तो खिलें हैं कई ,जो बिछड गए
उनकी निशानियाँ कुछ और हैं

आँखें इंतज़ार करतीं ,जुबाँ कुछ बोलती है
नश्तर चुभते जब सुर्खियाँ कुछ और बोलतीं
जो गुजरे उस जमीं से पुरुषार्थी
कुर्बानियाँ उनकी कुछ और बोलतीं
समुन्दर उछाल मारता ,
नदियाँ बस खामोश हैं।
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