पथ के साथी

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Monday, August 14, 2023

1361-सॉनेट

 

विनीत मोहन औदिच्य 

 


1-पन्द्रह अगस्त (सॉनेट)

  

पन्द्रह अगस्त पन्द्रह अगस्त आ गया पुनः पन्द्रह अगस्त

ध्वज स्वतंत्रता का फहराने निकला सूरज कर तिमिर पस्त

इस दिन के लिए ही वीरों ने कर खून स्वयं कामनाओं का

अपना सर्वस्व न्योछावर कर इतिहास लिखा बलिदानों का।

 

गांधी,सुभाष,आजाद,तिलक,सरदार,भगत सिंह,मौलाना

गोखले, जवाहर, मालवीय, सबने पहना था एक बाना

सन सैंतालिस पीछे छूटा  पर जंग अभी तक जारी है

इस देश से ज्यादा, अब अपनी आजादी सबको प्यारी है।

 

जनसंख्या बढ़ती दिन प्रति दिन है रोजगार आसान नहीं

विकराल समस्याओं से घिर, खोयी मानव पहचान कहीं

अनुभूति है यद्यपि कड़वी ये क्यों मिली देश को आजादी

जिनको संवारना था भविष्य वो ही कर बैठे बरबादी।

  

परमार्थ स्वार्थ से गौण हुआ हक कर्तव्यों पर भारी है

है भ्रष्ट व्यवस्था अधिकारी जनता बेहद दुखियारी है।।

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 2-भारत वर्ष (सॉनेट)

 

वर्ष का सूरज बनकर, प्रभु कृपा दृष्टि कर दे

तिमिर हटाकर जीवन पथ को, आलोकित कर दे

दैविक, भौतिक संतापों से, मुक्त हों भारत के वासी

रहें प्रफुल्लित सब जन गण कभी न छाये यहाँ उदासी।

 

पुण्य सलिल से सिंचित खेत सब , स्वर्ण धान्य उपजाएँ

शस्य श्यामला धरा, बाग, फल - फूलों से खिल जायें

रहे न बचपन कोई अभागा, छाँव मिले ममता की

नारी का सम्मान करें सब, सेवा भी मात पिता की।

 

हो किसान ऋण मुक्त, सुखी, संपन्न यही वर लेना

दिशा हीन को दिशा दिखा और बेघर को घर देना

जन।-जन में स्फूर्ति चेतना, नव यौवन अब भर जाये

मिट जाये आतंक, शांति का, शाश्वत स्वर मिल पाये।

  

मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर से, गूँजे बस एक ही नारा

प्रेम की भाषा बोल एक है, भारत वर्ष हमारा प्यारा।।

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3-स्वर्णिम भारत(सॉनेट)

 

सार्थक जीवन का साथियों हैं यही परम उद्देश्य

विकसित और संपन्न हों गाँव प्रदेश और यह देश

भ्रूण की हत्या छुआछूत और जात - पाँत की रीत

जुआ शराब नशे के व्यसन से कोई न करना प्रीत।

 

कन्या लक्ष्मी रूप मान कर घर घर हो उनका सम्मान

नारी शक्ति को पहचानें, करे न अब कोई अपमान

हों शिक्षित समस्त नर नारी, धरम करम में पक्के

राष्ट्रभक्ति और संस्कारों से, हों पोषित देश के बच्चे।

 

उन्नत खेती पर हो निर्भर  रहें प्रसन्न अन्नदाता किसान

श्रम की शक्ति को अपनाये, शहरी और ग्रामीण युवान

अधुनातन विज्ञान की धारा, अब लाये चहुँ दिस क्रांति

जन - जन के आंगन में खेले, सुख, समृद्धि और शांति।

 

शहर की अंधी दौड़ बंद कर सब जन लाएं नवीन समग्र विकास

गाँव,नगर वासी मिलजुल कर लिखें स्वर्णिम भारत का इतिहास।

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Sunday, June 4, 2023

1324-सॉनेट,

 

प्रो. विनीत मोहन औदिच्य

 


 ग्राम्य जीवन 

 नीले अंबर के आंगन में भोर का सूरज उगता

सोकर उठ जाने को मानो सारे जग से कहता

जल भरने घट लेकर जातीं ललनाएँ पनघट पर

करने को स्नान जमा हों नारी सब सरि तट पर

 

 

हरीतिमा की चादर ओढ़े वसुंधरा इठलाती

खेतों की ये मेड़ भी देखो इधर उधर बल खाती

सर्पीले लंबे रस्ते पर पसरी बूढ़े बरगद की छाया

स्वेद बिन्दु ,श्रम के चमकाएँ क्लांत कृषक की काया।

 

फूली सरसों शीत पवन से मंद- मंद सी लहरा

चारा खाकर गौ माता भी बैठ चैन से पगुरा

मधुर मधुर घंटी की ध्वनि नीरवता में स्वर भरती

पेड़ों के झुरमुट में छिपकर कोयल कलरव करती

 

प्रेम दया करुणा से सुरभित, रहता जीवन ग्राम्य

जीना- मरना इस माटी में, एकमात्र हो काम्य।।

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समाधियाँ

 

कच्ची मिट्टी की समाधियाँ कहो भला हैं जानें किसकी

चिर निद्रा में सोएँ हैं अब जो अनजाने  से थे उनकी

ऊबड़ खाबड़ शिल्प रहित हैं शिलालेख भी सूने- सूने

रहें सुसज्जित सब ऋतुओं में घास -फूस से बढ़ते दूने।

  

निर्धनता ने इन्हें सदा ही गोद में अपनी शिशुवत् पाला

मिले अवसरों को पीड़ा ने बल से चूर- चूर कर डाला

क्रूर नियति के तले कुचल कर इच्छा ने दम तोड़ा

और अशिक्षा ने शापित की भाग्य रेख को मोड़ा।

 

कोई बनता कवि, लेखक, या वीर ख्यात अभिनेता

करता वह नेतृत्व देश का यदि समय जो अवसर देता

पेट पालने के यत्नों में स्वयं को रहा अंत तक खपाता

दिन भर के श्रम से थक कर वह बहुधा ही सो जाता

 

संतोषी, संयमित रहे जो, अर्पण करो इन्हें पुष्पांजलि

जीवन से हारे वीरों को, यही सच्ची होगी श्रद्धांजलि।।

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(विभागाध्यक्ष अंग्रेजी, शासकीय महाविद्यालय,ढाना), सॉनेटियर एवं ग़ज़लकार

Sunday, April 9, 2023

1311-प्रीति की मधु यामिनी

प्रॉ. विनीत मोहन औदिच्य

 

प्रेम रंगो से सजाओ, आज अपने गेह को 

यह वचन है मैं सहेजूँगा, तुम्हारे नेह को

स्वप्न जो अँखियो ने देखे, मैं उन्हें पूरा करूँगा

मैं तुम्हारी माँग को भी, शुभ्र तारों से भरूँगा।

 

तीक्ष्ण वाणों से नयन के, है हृदय यह बिद्ध मेरा

रतजगा करते हुए ही नित्य होता है सवेरा

कंठ कोकिल से कभी जब, राग स्वर में फूटता

मुग्ध रह जाता है मन ये, तन कहीं पर छूटता ।

 

मैं भ्रमर बन स्निग्ध तेरे रूप का रसपान करता

और विरह की वेदना में, डूबकर मैं आह भरता

हृद ये धड़के धौंकनी-सा, मंद हर पग चाप सुनकर 

और मैं होता प्रफुल्लित, इन्द्रधनुषी स्वप्न बुनकर। 

 

प्रीति की मधु यामिनी में, है अनंतिम चाह मेरी।

मैं सदा सुमनित करूँगा , कामना की राह तेरी।।

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सागर, मध्यप्रदेश

दूरभाष - +91 79745 24871

Thursday, February 9, 2023

1286

 

1-मेरी कलम

सुरभि डागर

  


लिखना चाहती है

मेरी कलम बहुत कुछ

पर ना जाने क्यों

ठहर जाती है ।

हो जाती है संकुचित

धुँधला जाते हैं

स्वच्छ शब्द,

पीला पड़ जाता है

कोरा सफेद कागज़ और

लग जाता है पूर्ण विराम

लिखना चाहती है

मन की व्यथा, जो

दर्द है उड़ेल दूँ स्याही से

पर रुक जाती हैं मेरी

अँगुलियाँ ।

ह जाता बस कोरा कागज़

और टकटकाता

रह जाती है मेरी

उदास कलम।

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सॉनेट

विनीत मोहन औदिच्य

1-करें रतजगा सपने सारे



करें रतजगा सपने सारे, जी भरकर भरते सब आहें
रौंद हितों को दुखिया मानव इन्हें पूर्ण करना ही चाहें
स्वार्थ की अंधी दौड़ में हिस्सा लेता है आकर हर कोई
नंगेपन का देख खेल अति त्रस्त मनुजता बरबस रोई ।

शील लूटता अबला का नर कामुक नहीं लजाता
उसे भोग की वस्तु समझ कर कुत्सित भाव दिखाता
आडंबर का खेल घिनौना देख सहमती पावन धरती
अत्याचारों से उकताई सहिष्णुता घुट घुट नित मरती।

अब पथभ्रष्ट युवा भी सोचो कितने करते हैं मनमानी
संस्कार से हीन पृथक जीवन जीने की मानो ठानी
भ्रष्ट आचरण को अपनाकर मानव है जो पोषण पाता
देश प्रेम और मूल्यों से अब नहीं रहा है उसका नाता।

भारत माता के गौरव के बने हुए हैं जो रखवाले ।
हाय ! उन्होंने सुंदर सपने सारे चूर- चूर कर डाले।।

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2-आ गया ऋतुराज 

आ गया ऋतुराज देखो ओढ़कर पीला दुशाला
शारदे माँ भी विराजी, कर में वीणा, गले माला
पीत सरसों को पहनकर, खेत हर्षित लहलहाते
मधुप की ताजा चुहल से, पुष्प सारे खिलखिलाते।

सुगंधित वातावरण में, आस मृदु हृद में है पलती
घोलती मदिरा स्वरों में जब कोई पायल खनकती
नैन रतनारे प्रिया के , निश सजन की बाट हेरें
अंक में पिय के समाने, द्वार पग हर बार फेरें।

कामना की नदी चंचल, वेग से अति बह रही है
तितलियों ने पुष्प से भी प्रीति की भाषा कही है
शुष्क अधरों ने पिया के, मौन सा संदेश भेजा
विरह की अग्नि ने जैसे पीर को उर में सहेजा।

विटप से लिपटीं लताएँ प्रीति की मनुहार करती।
चपल वासंती बयारें, रंग नव, जीवन में भरतीं ।।

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3-प्रणय-अनुबंध 

कनखियों से लख रहा हूँ अप्रतिम चेहरा तुम्हारा
ज्योति को चहुँ दिस बिखेरे चंद्रमा से लगे प्यारा
लालिमा गालों की तेरी रंग प्रकृति का लजाए
आ खड़ी हो द्वार पर तुम पुष्प वेणी में सजाए।

अधर कंपित जब तुम्हारे प्रीति के पट खोलते हैं
रागिनी के स्वर सहज ही हृदय में मधु घोलते हैं
वक्षस्थल का उठना गिरना करता है जब विचलित
निरख रूप को असमय होते जाने कितने कवलित।

आशा और निराशा अंतर में उपजे जब निश दिन
सच मानो वैधव्य झेलता चैन भी जाता है छिन
कर रही व्याकुल हृदय को यह सुवासित देह चंदन
मौन साधे यह पथिक भी कर रहा करबद्ध वंदन ।

गीत मनोरम प्रीति रीति के रहें धरा पर अक्षत।
यह अनुबंध प्रणय का अपना रहे सदा ही शाश्वत।।

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Friday, December 16, 2022

1265-सॉनेट

 1-रंग नव घोलो 

प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य

  


प्रेम की पावन डगर में
, साथ तुम रहना

हो अगर मुझसे अपेक्षा,सच सदा कहना

रात को जो दिन कहो तो, मान मैं लूँगा

प्रीति का उपहार सुंदर, मैं तुझे दूँगा ।

 

कोटि दुख- सुख इस धरा के,हृद सहे जाता

कामना का भावना से, बस रहा नाता

दो भले ही शाप मुझको, मुख नहीं मोड़ूँ

हो भले हालात मुश्किल, साथ ना छोड़ूँ ।

 

कर्म जो करता अमानुष, दंड वह पाता

घूमता फिरता जगत् में, ठोकरें खाता

प्रीति की जिसके हृदय में,भावना मरती

शोक में डूबी हुई वो, नित रुदन करती।

 

 

उर दया करुणा रखो तुम, सत्य ही बोलो

कर सुधा अविरल प्रवाहित, रंग नव घोलो।।

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प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य,ग़ज़लकार एवं सॉनेटियर,सागर, मध्यप्रदेश

Mail id - <nand.nitya250@gmail.com

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2-अनिमा दास

1-उक्त -अनुक्त 

 


ऊहूँ...न..नहीं व्यक्त करूँगी मेरी परिधि
 

ऊहूँ... न.. नहीं आऊँगी संग तुम्हारे,देने

तुच्छ कामनाओं को...पूर्णता व प्रविधि

अर्थहीन संभावनाओं का अपराध लेने।

 

तुम हो एकांत द्वीप के अहंमन्य सम्राट 

हाँ..तुम्हारी कल्पना से जो गंध आती है

उससे मैं होती हूँ रुद्ध..रुद्ध होता कपाट

अनुक्त शब्दों में...व्यथा भी भर जाती है।

 

मैं नहीं होती तुम्हारे प्रश्न वाण से क्षताक्त

अट्टहास तुम्हारा जब गूँजता है नभ पर 

हृदय उतनी ही घृणा से होता है विषाक्त

ध्वस्त करती हूँ इस ग्रह का मिथ्या गह्वर।

 

 

आः!!! अब सर्वांग मेरा हो रहा अग्निमय 

उः!!! शेष हो कराल नृत्य..अंतिम प्रलय।

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2-हंसदेह 

 

 

इस परिधि से पृथक् प्राक् पृथ्वी है नहीं

इस मयमंत समय का क्या अंत है कहीं?

नहीं.. नहीं अब नवजीवन नहीं स्वीकार

अति असह्य..अरण्यवास का अभिहार।

 

भविष्य के भीति भस्म में बद्ध वर्तमान 

प्रत्यय एवं प्रणय में पराभूत...प्रतिमान

क्षणिक में क्यों नहीं क्षय होती क्षणदा?

जैसे प्रेम में प्रतिहत प्रत्यूष की प्रमदा!

 

नहीं स्वीकार नव्य नैराश्य से निविड़ता

अद्य अति असह्य है अतिशय अधीनता

उन्मुक्त-अध्वर-उन्मुक्त-अदिति उन्मुक्त 

हो,शीघ्र यह शरीर सरित हो पुनः शुक्त।

 

हे,शब्द संवाहक! कहाँ है वह चित्रावली 

हंसदेह को अविस्मृत करती पत्रावली ?

 

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3-नदी -सी तू

 

 

देखो दृश्य दिगंत का.. दीप्त हो रहा

शंख संवित्ति का सुमधुर सुर में बहा

कथाश्रु की दो धाराएँ...तट-द्वय पर

बह गईं विरह के साथ देह उभय पर।

 

नदी..नदिका,नदीकांत में हुईं निमग्ना 

निर्झर निरुत्तर.. नील हुआ है कितना

वन- वन नृत्य करता मुग्ध मुदित मयूर

प्राची पवन से प्रीति पुष्पपराग अदूर।

 

तीर..तरंगिणी.. शून्या तरणी ..क्षोणी

विमुख व्यथा से री!विदग्धा विरहिणी

आहा! स्वप्न समुद्र में संगमित सलिल 

उरा के उर से उद्वेलित आपगा उर्मिल ।

 

 

मोह लिया..मोक्ष दिया, किया मानित

महाकाव्य की मनस्विनी हुई मोहित।

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अनिमा दास ,सॉनटियर,कटक, ओड़िशा 

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Sunday, November 20, 2022

1260

 प्रो.विनीत मोहन औदिच्य

अप्सरा - सॉनेट 

तुम्हें  देखा,पर न जानूँ, तुम अप्सरा हो कौन

गीत हो तुम, काव्य सुन्दर, हो मुखर या मौन

तुम सितारों से हो उतरी, गति परी समान 

बूँद वर्षा की लगो या मोर पंख -सा परिधान ।

 

था अचंभित देख तुमको इंद्रधनुष अभिमानी

कहा नभ से पूछ लो तुम जैसी कोई होगी रानी 

मेघावरि की आर्द्रता को छूकर पूछा एक बार

कहा उसने मत पूछ मुझसे, करो यह उपकार ।

 

कोयल सम स्वर कोकिला तुम, शोभित अति कामिनी 

नयन खंजन ,मंद स्मित कहो हो किसकी भामिनी

हो नहीं पथभ्रान्त तुम भ्रमर सी पुष्प मकरंद परिचित

क्यों न कामना हो हृदय को, क्यों न हो यह विचलित

 

हे प्रेयसी! धरा से स्वर्ग तक मात्र तुम्हारा ही वर्चस्व 

कल्पना तुम, कल्प तुम, तंत्रिकाओं में दिखे प्रभुत्व।।

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  ग़ज़ल 

 

जो न बुझती कभी वो प्यास हूँ मैं

तेरे दिल का नया आवास हूँ मैं

 

मेरी आवारगी से अब है निस्बत

लोग समझें कि तेरा खास हूँ मैं

 

मुझको मालूम है छाए अँधेरे

टूटती जिंदगी की आस हूँ मैं

 

दूर रहना भले हो तेरी फितरत

साया बन कर तेरे ही पास हूँ मैं

 

भीड़ में खुद को अब कैसे तलाशूँ

शब की तन्हाइयों को रास हूँ मैं

 

कैद कर पागा कोई भी कैसे

गुल की फैली हुई सुवास हूँ मैं

 

'फ़िक्र' की चाहतों में है तू हर दम

तेरा ए रब सदा से दास हूँ मैं।

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प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य

सॉनेटियर व ग़ज़लकार

सागर, मध्यप्रदेश