धारा बनी नदी
–सीमा स्मृति
नौ माह की अवस्था से मेरे दोनों पाँव में पोलियो हो गया था।
ईश्वर की असीम कृपा एवं माता-पिता के अथक प्रयास से मैं जल्द ही अपने पाँवों पर खड़ी हो गई। मुझे बैंक
में नौकरी मिल गई। मेरे पिता जी मुझे बचपन से ही स्कूल छोड़ने और लेने जाते रहे थे।
अब पिता जी मुझे रोज़ बैंक भी छोड़ने जाते थे। पिता जी की आयु बढ़ रही थी। मुझे प्रतिदिन
बैंक छोड़ने के दायित्व के कारण वह कभी दिल्ली
से बाहर नहीं जा पाते थे। मेरे भइया दिल्ली से बाहर थे। मैं अपने को
बहुत विवश और असहाय महसूस करने लगी थी ;क्योंकि आज भी मुझे बहुत से छोटे छोटे
कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहती थी।
एक दिन मैंने एक लड़के
को एक स्कूटर चलाते देखा, जिसके साइड में दो पहिए लगे थे। मैंने
उसे रोका और उस स्कूटर के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त की । अब एक ख्वाब मेरे जहन
में जन्म ले चुका था। अब इसके सफर के लिए मैं हर पल सोचती रहती थी। फिर क्या !मैंने पिेता जी को अपने
लिए यह विशेष स्कूटर ,जिसकी साइड में अलग दो पहिए लगे
होते हैं और जिसको स्टार्ट करने के लिए किक नहीं मारनी पड़ती, खरीदने को कहा। पिता जी
एक दम परेशान हो गए और मैनें पिता जी को परेशान करने के लिए यह नहीं कहा था। स्कूटर
की बात से पिता जी परेशान हो चुके थे यह पूर्णतया मुझे तब समझ में आया, जब वह नाराज होकर डां डाँटते हुए बोले “तुझे क्या प्रॉब्लम है
,अगर मैं तुझे बैंक छोड़ कर आता हूँ।
कैसे चला पाएगी तू स्कूटर? देखा नहीं सड़कों पर
कैसा टैफिक रहता है?एक्सीडेंट हो गया तो...........कहीं? तो हमारी जिंदगी तो
बर्बाद हो जाएगी।” मैं अपने प्रति अटूट अनुराग एवं अति सुरक्षा की भावना
को समझ रही थी। वित्तीय रूप से स्वावलंबी होने के पश्चात् भी मैं उनकी मजीं के खिलाफ स्कूटर ख़रीद कर उनकी
भावनाओं को आहत नहीं करना चाहती थी। मैं एक नये सफर पर थी कि कैसे अपनी मंजिल तक
पहुँच । कुछ दिन बाद मैंने अपने एक मित्र के सहयोग से वह विशेष स्कूटर चलाना सीख लिया।
जिस दिन स्कूटर चलाते वक़्त एक साइकिल वाला मुझ से पीछे रह गया, वह पल मेरे जीवन का
अमूल्य और सर्वाधिक रोमांचित कर देने वाला पल था। मेरे जीवन में आशा की किरण और उमंग
हिलोरें लेने लगी। देखिए ना, मैं अपनी सोसाइटी के
गेट तक पैदल नहीं जा सकती हूँ और आज मैं
हर सड़क पर चल रही थी।
स्कूटर की प्रैक्टिस के साथ
यदा -कदा मैं अपने उन सभी मित्रों को अपने घर चाय पर आमंत्रित करती
रहती ,जिनकी शारीरिक समस्या मुझसे ज्यादा थी और ये सभी वही विशेष
स्कूटर चलाते थे।
मैं ख्वाब को पूरा
होते देखना चाहती थी; पर पिता जी की मुस्कान और आशीर्वाद के साथ। मैं मेरे
पिता जी के मन में अति सुरक्षा की भावना
को ठेस नहीं पहुँचना चाहती थी। मैं उन्हें
मानसिक सहमति के लिए तैयार करना चाहती थी। एक दिन मैंने विशेष रूप से अपनी सहेली रमा को
बुलाया। रमा के दोनों पाँव मुझसे भी ज्यादा पोलियो ग्रस्त थे।
रमा हमारे घर आई तो उसके पति बच्ची को गोद में लिये स्कूटर पर पीछे बैठे थे
और रमा स्कूटर चला रही थी ।उसने हैट पहना था और टॉम ब्वाय के जैसे
लग रही थी। वह चित्र मेरी आँखों आज भी अंकित है। रमा के जाने के पश्चात् मेरे पिता
जी बोले, बेटा तुम कल ही स्कूटर ख़रीद लो। इतना सुनकर मेरे ख्वाबों को पंख लग
गए। मैं बैंक स्कूटर जाने लगी। हर गली बाजार यहाँ तक चाँदनी चौक अपने आफिस को सहेली को पीछे बिठा
कर ले गई। अपने भतीजा –भतीजी, भानजा -भानजी को बाजार ले जाती ।
जरूरत पड़ने पर घर से बाजार के काम करने लगी। आज मैं कार चलती हूँ।
पिता जी अक्सर अब कहते
हैं कि काश मैंने तुझे स्कूटर पहले ले दिया होता ।
पिता जी को पहली बार स्कूटर
खरीदने को कहने और रमा के घर आने तक पाँच वर्ष का समय लगा था।
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