पथ के साथी

Saturday, June 14, 2014

मेरे ख्वाबों का सफर



धारा बनी नदी 
–सीमा स्मृति

नौ माह की अवस्था से मेरे दोनों पाँव में पोलियो हो गया था। ईश्‍वर की असीम कृपा एवं माता-पिता के अथक प्रयास से मैं जल्‍द ही अपने पाँवों पर खड़ी हो गई। मुझे बैंक में नौकरी मिल गई। मेरे पिता जी मुझे बचपन से ही स्‍कूल छोड़ने और लेने जाते रहे थे। अब पिता जी मुझे रोज़ बैंक भी छोड़ने जाते थे। पिता जी की आयु बढ़ रही थी। मुझे प्रतिदिन  बैंक छोड़ने के दायित्‍व के कारण वह कभी दिल्‍ली से बाहर नहीं जा पाते थे। मेरे भया दिल्‍ली से बाहर थे। मैं अपने को बहुत विवश और असहाय महसूस करने लगी थी ;क्‍योंकि आज भी मुझे बहुत से छोटे छोटे कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहती थी।
एक दिन मैंने एक लड़के को एक स्‍कूटर चलाते देखा, जिसके साइड में दो पहिए लगे थे। मैंने उसे रोका और उस स्‍कूटर के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्‍त की । अब एक ख्‍वाब मेरे जहन में जन्‍म ले चुका था। अब इसके सफर के लिए मैं हर पल सोचती रहती थी। फिर क्‍या !मैंने पिेता जी को अपने लिए यह विशेष स्‍कूटर ,जिसकी साइड में अलग दो पहिए लगे होते हैं और जिसको स्‍टार्ट करने के लिए किक नहीं मारनी पड़तीखरीदने को कहा। पिता जी एक दम परेशान हो गए और मैनें पिता जी को परेशान करने के लिए यह नहीं कहा था। स्‍कूटर की बात से पिता जी परेशान हो चुके थे यह पूर्णतया मुझे तब समझ में आयाजब  वह नाराज होकर डां डाँटते हुए बोले “तुझे क्‍या प्रॉब्‍लम है  ,अगर मैं तुझे बैंक छोड़ कर आता हूँ। कैसे चला पाएगी तू स्‍कूटरदेखा नहीं सड़कों पर कैसा टैफिक रहता है?एक्‍सीडेंट हो गया तो...........कहींतो हमारी जिंदगी तो बर्बाद हो जाएगी।” मैं अपने प्रति अटूट अनुराग एवं अति सुरक्षा की भावना को समझ रही थी। वित्तीय रूप से स्‍वावलंबी होने के पश्‍चात्  भी मैं उनकी मजीं के खिलाफ स्‍कूटर ख़रीद कर उनकी भावनाओं को आहत नहीं करना चाहती थी। मैं एक नये सफर पर थी कि कैसे अपनी मंजिल तक पहुँच । कुछ दिन बाद मैंने अपने एक मित्र के सहयोग से वह विशेष स्‍कूटर चलाना सीख लिया। जिस दिन स्‍कूटर चलाते वक्‍़त एक साइकिल वाला मुझ से पीछे रह गयावह पल मेरे जीवन का अमूल्‍य और सर्वाधिक रोमांचित कर देने वाला पल था। मेरे जीवन में आशा की किरण और उमंग हिलोरें  लेने लगी। देखि नामैं अपनी सोसाइटी के गेट तक पैदल नहीं जा सकती हूँ और आज मैं  हर सड़क पर चल रही थी।
स्‍कूटर  की प्रैक्टिस के साथ यदा -कदा मैं अपने उन सभी मित्रों को अपने घर चाय पर आमंत्रित करती रहती ,जिनकी शारीरिक समस्‍या मुझसे ज्‍यादा थी और ये सभी वही विशेष स्‍कूटर चलाते थे।
मैं ख्‍वाब को पूरा होते देखना चाहती थी; पर पिता जी की मुस्‍कान और आशीर्वाद के साथ। मैं मेरे पिता जी  के मन में अति सुरक्षा की भावना को ठेस नहीं  पहुँचना चाहती थी। मैं उन्‍हें मानसिक सहमति के लिए तैयार करना चाहती थी।  एक दिन मैंने विशेष रूप से अपनी सहेली रमा को बुलाया। रमा के दोनों पाँव मुझसे भी ज्‍यादा पोलियो ग्रस्‍त थे। रमा हमारे घर आई  तो उसके पति बच्‍ची को गोद में लिये स्‍कूटर पर पीछे बैठे थे और रमा स्‍कूटर चला रही थी उसने हैट पहना था और टॉम ब्‍वाय के जैसे लग रही थी। वह चित्र मेरी आँखों आज भी अंकित है। रमा के जाने के पश्‍चात् मेरे पिता जी बोलेबेटा तुम कल ही स्‍कूटर ख़रीद लो। इतना सुनकर मेरे ख्‍वाबों को पंख लग गए। मैं बैंक स्‍कूटर जाने लगी। हर गली बाजार यहाँ तक चाँदनी चौक अपने आफिस को सहेली को पीछे बिठा कर ले गई। अपने भतीजा भतीजी, भाजा -भाजी को बाजार ले जाती । जरूरत पड़ने पर घर से बाजार के काम करने लगी। आज मैं कार चलती हूँ।
पिता जी अक्‍सर अब कहते हैं कि काश मैंने तुझे स्‍कूटर पहले ले दिया होता ।
पिता जी को पहली बार स्‍कूटर खरीदने को कहने और रमा के घर आने तक पाँच वर्ष का समय लगा था।
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पितृ चरणों में



1-श्रद्धांजलि .........पितृ चरणों में ...
          डॉ० ज्योत्स्ना शर्मा
                           " सुधियाँ भी पावन हुईं ,मन सुरभित सुख धाम
                         पितृ-चरण करूँ वन्दना ,सहज ,सरल ,निष्काम
।। "
       शब्द ब्रह्म हैं ...और ..अक्षर कभी क्षरित नहीं होते ....विचरण करते हैं ,पहुँच ही जाते हैं गंतव्य तक ..कभी न कभी
इसीलि कहती हूँ यहाँ ..पापा जी आपसे ..यूँ तो आपको बहुत याद करती हूँ  ;लेकिन आज बताना भी है कि कितना और कैसे ? हर रूप में ...खाना बनाना सिखाते ,अंग्रेजी और गणित पढ़ाते ,अपने लेख लिखवाते ,साहित्य ,राजनीति ,घर और सामाजिक सरोकारों पर चर्चा करते आप ही आप दिखते हैं
               कवि कालिदास ,महादेवी जी ,प्रसाद जी और दुष्यंत कुमार हों या स्वामी विवेकानंद , स्वामी दयानंद सरस्वती  या फिर सुभाष चंद्र बोस, सभी को मैंने आपकी नज़रों से ही तो देखा है
मेरे स्कूल से कॉलेज और फिर कार्य- क्षेत्र तक मेरी हर सफलता पर खुश होते और हर असफलता पर हिम्मत बढ़ाते ,मेरी विदाई पर गले लगा कर रोते और नए घर में प्रवेश पर आशिष बरसाते ,आप मेरी दृष्टि से नहीं जाते
कौन कहता है आप नहीं हैं ..?आप मेरे साथ हैं ..मेरे विचारों में ,मेरे सिद्धांतों में ,मेरी आदतों और मेरी उन सभी पुस्तकों में जो मुझे आपसे मिलीं
अपनी हर सफलता और सुख यहाँ तक कि स्वयं के व्यक्तित्व में आपको देखती हूँ ..इसी से जानती हूँ कि मैं न भी कहती तो भी आप जान लेते कि मैं क्या सोचती हूँ ....क्योंकि ...मैं हूँ न आपकी ..आत्मजा

कुछ पंक्तियाँ आपकी स्मृति में ...


जीवन-दर्शन हैं पिता , चिंतन का आधार

नित-नित नयनों में रचा ,स्वप्नों का संसार
।।

छाया शुभ आशिष रहे , कभी कड़ी सी धूप

विपत हरें ,नित हित करें ,पिता परम प्रभु रूप
।।



माँ तो शीतल छाँव सी ,पिता मूल आधार

सुन्दर सुखी समाज का संबल है परिवार ।।


फूल कली से कह गए ,रखना इतना मान

बिन देखे होती रहे , खुशबू से पहचान
।।

शीश चुनरिया सीख की , मन में मधुरिम गीत

बाबुल तेरी लाडली  , कभी न भूले रीत
।।



अब मिलना मुमकिन नहीं ,मन को लूँ समझाय

बिटिया हूँ , कैसे भला , याद न मुझको आय ।।

आप की सुन्दर स्मृतियों  को सदा मन में संजोये ...सादर ..
आपकी आत्मजा ......
ज्योत्स्ना
28-10-12
-0-्योत् ,GUJRAT .396191


2-संस्मरण: पिता जी का प्यार
          सविता अग्रवाल "सवि "

   पौ फटते ही चिड़ियों की चहचहाट शुरू हो गई | मेरी खिड़की के एक कोने में चिड़िया ने अपना घोंसला बना रखा था | छोटे छोटे  बच्चे चूं चूं कर रहे थे | थोड़ी देर में मैंने देखा कि एक चिड़ा कहीं से उड़ कर आया और कुछ देर के लिए चूं चूं की आवाज़ बंद हो गई लगा जैसे बच्चों को खाना मिल गया हो और वे शांत हो गए थे | मेरे मस्तिष्क में कई दशक पुरानी एक घटना घूम गई ..जब मैं लगभग सात या आठ वर्ष की थी | एक बार अपनी दादी के साथ उनके मायके में किसी लड़की की शादी में गई थी | विवाह के उत्सव में बहुत से सगे संबंधी आये हुए थे | दादी ने मुझे भी सब से मिलवाया | मेरे साथ की एक लड़की मिल गई बस मैंने उसके साथ दोस्ती कर ली उसका नाम इंदु था | विवाह में अनेकों रीति रिवाज़ हो रहे थे हम दोनों को तो अपने खेलने में ही आनंद आ रहा था | सभी आपस में हंसी मज़ाक करते इधर से उधर घूम रहे थे | हर घंटे कुछ न कुछ खाने के लिए आ जाता था | मेहमानों का तांता लगा था |
  घर के बाहर कच्ची सड़क पर पानी का छिड़काव हो रहा था उस मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू से मन प्रसन्न हो रहा था | कुछ बुज़ुर्ग घर के बाहर कुर्सियां डाल कर बैठ गए और बातें कर रहे थे | कोई किसी की लड़की बड़ी हो गई है उसके लिए लड़का ढूँढने की बात करता तो कोई लड़के के लिए कोई लड़की बताओ कहता दिखाई दे रहा था | बीच बीच में कभी कभी हंसी का ज़ोरदार ठहाका लग जाता था | पूरी गली को रंग बिरंगी झंडियों से सजाया गया था |
   धीरे धीरे शाम हुई और बारात आने की तैयारी शुरू हो गई | एक कमरे में लड़की जिसका नाम सुमन था, दुल्हन बनी बैठी थी | तभी बारात के बैंड बाजे की आवाज़ें आने लगीं | मैं और इंदु भाग कर बाहर गए और बारात का इंतज़ार करने लगे | "बारात आ गई, बारात आ गई" कहते सभी खुश थे | दुल्हे की आरती उतारी गई | जयमाला का कार्यक्रम हुआ | सभी मिठाइयों का आनंद ले रहे थे | फेरों का समय आते आते मैं सो गई | सुमन जिसे मैं बुआ जी कहती थी उसकी विदाई सुबह को होनी थी | सुबह होते ही मैंने देखा कि कुछ बच्चे सुमन के साथ उनके ससुराल जाने की तैय्यारी में लगे थे | मेरे साथ खेलने वाली इंदु भी तैयार हो गई थी, क्योंकि अगले दिन सभी बच्चे सुमन के साथ वापिस आनेवाले थे | मैंने भी सुमन बुआ के साथ जाने की ज़िद्द की | दादी के बहुत मना करने पर भी मैं नहीं मानी और रोने लगी | तब सभी ने कहा कि ठीक है इसे भी भेज दो और मैं भी साथ चली गई |
  सुमन की ससुराल में उसकी सास ने सबकी खूब खातिर की | हम सभी ने पकवानों का जी भर आनंद उठाया | अगले दिन सुमन की सास ने सुमन के साथ उसके घरवालों के लिए बहुत सा सामान दिया जिसमें इंदु के लिए एक गुड़िया और मेरे लिए कोई और खिलौना भी दिया | परन्तु मुझे तो इंदु की गुड़िया ही पसंद आयी और मैं रोने लगी | तब कुछ लोगों ने समझाया कि घर जाकर ले लेना | बस मैं घर पहुँचने का इंतज़ार करने लगी | किसी तरह घर पहुंचे तो मैंने अपनी दादी से कहा कि मुझे तो वह गुड़िया ही चाहिए | इंदु भी अपनी ज़िद्द पर अटल थी कि यह गुड़िया तो मेरी है मैं नहीं दूंगी | दादी ने बहुत समझाया और किसी तरह मुझे अनेकों लालच देकर वापिस घर ले आयी और मेरे पिताजी से कहा कि यह गुड़िया के लिए बहुत रो रही थी | घर आकर भी मैंने गुड़िया की ज़िद्द नहीं छोड़ी | क़रीब चार दिन बाद मैंने देखा कि पिताजी अपने हाथ में कुछ लेकर आये हैं और उन्होंने मुझे एक कमरे में बुलाकर कहा कि आँखें बंद करो- देखो मेरी प्यारी बिटिया के लिए परी ने क्या भेजा है बचपन में दादी से परियों की कहानी सुन रखी थीं तो विश्वास हो गया कि सच में परी ने कुछ भेजा है | पिताजी ने कहा बोलो क्या चाहिए तुम्हें ? मेरे दिमाग़ में तो गुड़िया का भूत ही सवार था इसलिए मैंने कहा मुझे तो गुड़िया चाहिए | पिताजी ने कहा आँखे खोलो मैंने आँखें खोली तो देखा सुनहरे बालों वाली गुलाबी कपड़े पहने बड़ी सी एक गुड़िया मेरे हाथों में थी | मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा और मैं झट से पिताजी से लिपट गई | आज भी वह घटना याद आती है तो आँखें नम हुए बिना नहीं रहतीं  | क्या पिता का प्यार ऐसा ही होता है !!

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