पथ के साथी

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Monday, May 12, 2025

1461

  1-तुम धरा थीं/  शशि पाधा


तुम धरा थीं

तेरे आँचल से बँधी थी

सारी प्रकृति

तुम आकाश थीं

तेरे आँगन में खेलते थे

सारे ग्रह-नक्षत्र

तुम सागर थीं

तुममें समाहित थी

सारी नदियाँ

तुम ब्रह्मांड थीं

तुझमें ही लीन थीं

हवाएँ–दिशाएँ

और ...

इस सब से

अनभिज्ञ-अस्पृह

तुम...केवल तुम थी

तुम ... माँ थीं

-0-

2-एक थी यशोधरा /  प्रीति अग्रवाल 

नीरव रात्रि
एकांत में निकले
खोजने सत्य
सिद्धार्थ महल से
न कोई विदा
यशोधरा से माँगी
न कोई संकेत
जिससे जान पाती
नन्हा राहुल
छोड़ मैया सहारे
यशोधरा के
मन में निरन्तर
यही टीसता
क्या मैं बनती बाधा
साथ न देती
क्या यही सोचकर
निकल पड़े
वे बिना कहे-सुने
क्यों मन मेरा
पहचान न पाए
यही मनाऊँ
पाएँ ज्ञान प्रकाश
मोक्ष का मार्ग
जनहित दिखाएं
हूँ बड़भागी
उनकी अर्धांगिनी
प्रेम पात्र बनी मैं!!
-o-

Saturday, March 15, 2025

1456-करूँ क्या होली है

 

करूँ क्या होली है/ शशि पाधा

 


सुनो रे वन के पंछी मोर

सखा! न आज मचाना शोर

चुराने आई तेरे रंग

करूँ क्याहोली है

 

रंगरेज की हुई मनाही

सब ढूँढे हाट-बाज़ार

इन्द्रधनु का दूर बसेरा

 करे नखरे लाख हजार  

छिड़ी है तितली से भी जंग

करूँ क्या होली है |

 

अम्बर बदरा रंग उढ़ेले

बूँदें बरसें सावन की

होरी चैती अधर सजें फिर

सुध-बुध खो दूँ तन-मन की

 ज़रा- सी चख ली मैंने भंग

  करूँ क्याहोली है |

 

चुनरी टाँकूँ मोर पाँखुरी

माथे बिंदिया चन्दन की

चन्द्रकला का हार पिरो लूँ

रुनझुन छेडूँ कंगन की  

 बजाऊँ जी भर ढोल मृदंग

 सुनो जीहोली है |

 

-0-

Monday, February 3, 2025

1446

 

वासन्ती  पाहुन

शशि पाधा


वासन्ती  पाहुन लौट के  आया
डार देह की भरी-भरी
मंद-मंद पुरवा के झूले
नेह की गगरी झरी-झरी

 
उड़-उड़ जाए हरित ओढ़नी
जाने कितने पंख  लगे
रुनझुन गाए गीत पैंजनी
कंगना मन की बात कहे

 
ओझल हो न पल भर साजन
 
मुखड़ा देखूँ घड़ी-घड़ी।

कभी निहारूँ रूप आरसी
कभी मैं सूनी माँग भरूँ
चन्दन कोमल अंग  सँवारे
बिछुआ सोहे पाँव धरूँ

 
जूही- चम्पा वेणी बाँधूं
 
मोती माणक जड़ी-जड़ी

 
रुत  वासन्ती सज धज आई
देहरी आँगन धूप धुले
आम्र तरू पे गाये कोयल
सौरभ के नव द्वार खुले

     
ओस कणों में हँसती किरणें
     
हीरक कणियाँ लड़ी-लड़ी

महुआ टेसू गँध बिखेरें
आँख मूँद पहचान करूँ
कलश प्रीत का छल- छल छलके
अँजुरी भर रसपान करूँ

   
मौसम ने सतरंग बिखराये 
   
धरा वासंती लाल-हरी

-0-

Wednesday, January 1, 2025

1443

1-करो स्वागत

सुदर्शन रत्नाकर

 


बीत रहा है धीरे-धीरे

अस्तित्वहीन होता वर्ष

उखडी-उखड़ी -सी साँसें हैं

उदासी है छाई,

कहीं नहीं है हर्ष।

मौसम में नमी है

धूप भी अलसाई है

थके- थके दिन हैं,

रातों में ठंडाई है।

जीवन में उत्साह नहीं

बिछुड़ने की परवाह नहीं।

जा रहा है, तो जाने दो

जाने दो साथ में

सालभर की नकारात्मक

 सोच को

पाँवों में चुभे शूलों को

अपनी की हुई भूलों को।

विरोधियों की आवाज़ को

सड़ी -गली मान्यताओं को

पोंछ दो दर्पण पर पड़ी धूल को

जिसमें दिखाई नहीं देता

अपना ही असली चेहरा।

 

नए वर्ष का अभिनंदन करो

पुराने को भूल जाओ

नव उमंग, नव क्रांति

मिटाकर मन की भ्रांति

करो स्वागत, उगती नव किरणों का

फैला दें जो उजास

नव आशाओं का।

-0-


2-पाहुन/-शशि पाधा

 

द्वारे इक पाहुन है आया

सुख सपनों की डलिया लाया 

 

आशाओं की हीरक मणियाँ 

विश्वासों की झिलमिल लड़ियाँ 

प्रेम-प्यार के बन्दनवार

सजी-सजी हर मन की गलियाँ 

 

मंगल दीप जलें देहरी पर

किरणों ने नवरंग बिखराया

 दूर दिशा से पाहुन  आया 


नया सवेरा, नई ऊषा में

जीवन की उमंग नई

समय की धारा के संग बहती

जीवन की तरंग नई


राग रंग से रंगी दिशाएँ

इन्द्र धनु से थाल सजाया

  नव वर्ष द्वारे है आया 

          

धरती ,सागर, नदिया पर्वत

स्वागत’ ’स्वागत’ बोल रहे

आगत के कानों में पंछी

नव कलरव रस घोल रहे

  रोम-रोम बगिया का पुलकित

   सृष्टि ने नवगीत है गाया

  नव पाहुन द्वारे पर आया।

-0-

3-नववर्ष!

डॉ.सुरंगमा यादव

इक्कीसवीं सदी अबचौबीस बरस की हो ली

पच्चीसवें    वसंतीसपनों ने   आँखें खोलीं

खोने की है कसक  तोपाने का सुकूँ भी है

छूने को आसमाँ हैमन में  जुनून भी है

नववर्ष तू  दिलों मेंसंकल्प ऐसा भरना

मुट्ठी में कर लें सागर,मन में गुमान हो ना।

 

 


Thursday, November 21, 2024

1440

1-दूर –कहीं दूर/ शशि पाधा

 


अँधेरे में टटोलती हूँ

बाट जोहती आँखें

मुट्ठी में दबाए

शगुन के रुपये

सिर पर धरे हाथों का

कोमल अहसास

सुबह के भजन

संध्या की

आरतियाँ

लोकगीतों की

मीठी धुन

छत पर रखी

सुराही

दरी और चादर का

बिछौना

इमली, अम्बियाँ

चूर्ण की गोलियाँ

खो-खो, कीकली

रिब्बन परांदे

गुड़ियाँ –पटोले

फिर से टटोलती हूँ

निर्मल स्फटिक- सा

अपनापन

कुछ हाथ नहीं आता

वक्त निगल गया

या उनके साथ सब चला गया

जो चले गए

दूर--- कहीं दूर

किसी अनजान

देश में

और  फिर

कभी न लौटे।

-0-

2-कुछ शब्द बोए थे - रश्मि विभा त्रिपाठी

 


जैसे अभाव के अँधेरे में

हो सविता!

खेतों में किसान ने

जब बीज बोए

तैयार करने को फसल

दिया था जब खाद- पानी

तो गेहूँ की सोने- सी बालियों की

चमक में 

उसे ऐसी ही हुई थी प्रतीति,

 

मैं नहीं जानती मेरी भविता

मेरे अतृप्त जीवन ने तो

मन की 

बंजर पड़ी जमीन पर

अभी- अभी कुछ शब्द बोए थे

भावों की खाद डालकर

अनुभूति के पानी से सींचा ही था

कि देखा- 

कल्पवृक्ष- सी

वहाँ उग आई कविता।

 

और ऐसा लगा

मुझको जो चाहिए

जीने के लिए 

मेरे कहने से पहले

पलभर में वो सबकुछ लाक

मेरे हाथ पर रखने आ गए पिता।

-0-



Saturday, August 31, 2024

1429

 

सत्तर पार की नारियाँ/ शशि पाधा 

  

मन  दर्पण में खुद को ही 

तलाशती हैं नारियाँ

क्यों इतनी  बदल जाती हैं 

ये सत्तर पार की नारियाँ



रोज़-रोज़ लिखती हैं अपने  

अनुबंध, अधिकार 

बदला- बदला- सा  लगता  है 

उनको नित्य अपना संसार 


वक्त की दहलीज पर 
भी

दूर तक  निहारती  हैं नारियाँ

उस पार क्या अब ढूँढती हैं 

ये सत्तर पार की नारियाँ

 

चुपचाप कहीं धर देती हैं 

अपने अनुभवों की गठरी 

फेंक ही देते हैं लोग अक्सर  

यों बरसों पुरानी कथरी 


दीवार  पर
टँगी तस्वीर में 

खुद को पहचानती  हैं नारियाँ

फिर मन ही मन  मुस्कुरातीं हैं 

ये सत्तर पार की नारियाँ


बदल लेती हैं सोच अपनी

देख जमाने के रंग-ढंग 

धरोहर- सा रहता है उनका  

अतीत,सदा  अंग- संग 

फिर  बचपन की गलियों में 

लौट जाती  हैं नारियाँ

फिर से वही  बच्ची हो जाती हैं 

ये सत्तर पार की नारियाँ|

 

सह ही लेती हैं चुपचाप 

कोई दंश हो या चुभन 

जानती हैं क्या है आज की 

दुनिया का बदला  चलन 

 

फिर चुप्पी का महामंतर 

साध लेती  हैं नारियाँ

कितनी समझदार हैं ये 

सत्तर पार की नारियाँ

-0-

Monday, May 27, 2024

1418

1-अविरल क्रम/ शशि पाधा

 


भोगा न था चिर सुख मैंने

और न झेला चिर दुख मैंने

संग रहा जीवन में मेरे

सुख और दुख का अविरल क्रम

कभी विषम था, कभी था सम

 

किसी राह पर चलते चलते

पीड़ा से पहचान हुई 

अँखियों के कोरों से पिघली

 फिर भी मैं अनजान रही

   

हुआ था मुझको मरुथल में क्यूँ 

सागर की लहरों का भ्रम?

शायद वो था दुख क्रम।

 

कभी दिवस का सोना घोला

पहना और इतराई मैं

और कभी चाँदी की झाँझर

चाँद से लेकर आई मैं

 

 प्रेम हिंडोले बैठ के मनवा

 गाता था मीठी सरगम

 जीवन का वो स्वर्णिम क्रम।

 

पूनो और अमावस का

हर पल था आभास मुझे

छाया के संग धूप भी होगी

इसका भी एहसास मुझे

 जिन अँखियों से हास छलकता

 कोरों में वो रहती नम

 समरस है जीवन का क्रम।

-0-

 

2- कुछ पल/ सुरभि डागर 

 


कुछ पलों में 

बड़ा मुश्किल होता है 

भावों को शब्दों में पिरोना,

बिखर जाते हैं कई बार

हृदयतल में 

मानों धागे से मोती 

निकल दूर तक

छिटक रहे हों।

अनेकों प्रयास कर 

समेटने के; परन्तु 

छूट ही जाते कुछ 

मोती और

तलाश   रहती है बस

धागे में पिरोकर

माला बनाने की

रह जाती है बस अधूरी-सी कविता

कुछ गुम हुए 

मोतियों के बिना ।

-0-

3- निधि कुमारी सिंह

 


1-ये सफ़र न खत्म होगा

 

ये सफऱ न खत्म होगा 

आज हकीकत में 

तो कल यादो में 

ये सिलसिला जारी रहेगा 

क्योंकि ख्वाबों में ही सही 

पर अकसर हमारी मुलाकातें होती रहेंगी 

फासले तो बेशक़ रहेंगे 

पर कभी ये सफ़र न खत्म होगा 

कुछ यादों को हमने समेटा है 

और कुछ यादें, जिन्हें आपने सँजोया है 

उन्हीं को सँभालते हुए 

ये सफऱ यों ही बरकरार रखेंगे 

न सोचना कि यह सफऱ यहीं तक था

क्योंकि ये सफऱ न खत्म होगा 

सफ़र की यह दहलीज ही ऐसी है 

जहाँ सफलता की मुस्कान है 

पर फिर भी नम हैं दोनों की आँखें

क्योंकि पल है यह विदाई का 

हम दूर रहकर भी पास रहेंगे 

एक दूजे के यादों में जिएँगे 

यों ही मुस्कुराते रहेंगे हम और आप 

कभी याद करके तो कभी याद आकर 

परन्तु ये सफ़र कभी खत्म न होगा ।

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