पथ के साथी

Saturday, November 16, 2024

1439

 

दोहे - विभा रश्मि (गुड़गाँव)


1

ओसारे में रात भर, भीगा पीत गुलाब।

रूप दिया फिर भोर ने, छिटका अमित शबाब।।

2

बिछे डगर में शूल जब, करें पाँव में छेद।

करके लहूलुहान भी, जतलाते ना खेद।।

 3

रिश्ते सब ओछे हुए, कैसे पले लगाव।

चिंदी- सा ईंधन बचा, कैसे जले अलाव।।

4

फुलवारी क्यारी कहे, सुन ले मन की बात। 

बिखरा सरस सुगंधियाँ, हँस ले सह आघात।। 

5

सुबह की नरम धूप खा, झूमी हरियल घास।

पीत रंग का पुष्प खड़ा, जगा रहा था आस।।

6

जन्मों का बंधन बँधा, जीता मन का साथ।

फिर क्यों मेरे हाथ से, छूटा तेरा हाथ।।

7

चलें हवाएँ विष भरी, दूषित हर जलधार।

कुदरत भी है सोचती, किसने ठानी रार।।

8

सघन कुहासा है तना, धुँधली हुई उजास।

सभी नज़ारे छुप गए, मनवा हुआ उदास।।

9

जल जिस साँचे में पड़े ,लेता वह आकार।

ऐसा ही सज्जन सदा, करते हैं आचार।।

10

किरणें नहलाती रहीं, उपवन झील पहाड़।

तिल जैसे नन्हे घटक , बनना चाहें ताड़।।

-0-