दोहे - विभा रश्मि
(गुड़गाँव)
1
ओसारे में रात भर, भीगा पीत गुलाब।
रूप दिया फिर भोर ने, छिटका अमित शबाब।।
2
बिछे डगर में शूल जब, करें पाँव में छेद।
करके लहूलुहान भी, जतलाते ना खेद।।
3
रिश्ते सब ओछे हुए, कैसे पले लगाव।
चिंदी- सा ईंधन बचा, कैसे जले अलाव।।
4
फुलवारी क्यारी कहे, सुन ले मन की बात।
बिखरा सरस सुगंधियाँ, हँस ले सह आघात।।
5
सुबह की नरम धूप खा, झूमी हरियल घास।
पीत रंग का पुष्प खड़ा, जगा रहा था आस।।
6
जन्मों का बंधन बँधा, जीता मन का साथ।
फिर क्यों मेरे हाथ से, छूटा तेरा हाथ।।
7
चलें हवाएँ विष भरी, दूषित हर जलधार।
कुदरत भी है सोचती, किसने ठानी रार।।
8
सघन कुहासा है तना, धुँधली हुई उजास।
सभी नज़ारे छुप गए, मनवा हुआ उदास।।
9
जल जिस साँचे में पड़े
,लेता वह आकार।
ऐसा ही सज्जन सदा, करते हैं आचार।।
10
किरणें नहलाती रहीं, उपवन झील पहाड़।
तिल जैसे नन्हे घटक , बनना चाहें ताड़।।
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