पथ के साथी

Thursday, November 22, 2007

छ्ह कविताएँ



विपिन चौधरी


1-आड़े वक्त में


हर भरोसे को
पुड़िया में बाँध लेना चाहती हूँ मैं।
आने वाले वक्त में
इनके भरोसे से ही जीने की कोई
जुगत बिठानी पड़ेगी।

मुझ से मिलती- जुलती
सभी परछाइयों से दोस्ती कर लेना
चाहती हूँ मैं।
ताकि आड़े समय पर
उनकें द्वारों को
खटखटाया जा सके।

संवेदना का
छोटा- सा कतरा भी
निसंकोच उठा लेती हूँ मैं कि
मन का यह गागर
कभी भरे तो सही।




2-किरण पर हो सवार
लौट जाओ
उलटे पाँव
न ठिठको
एक पल भी रुकना
निषेध है यहाँ।

जंग लगे कपाट नहीं खुल पाएँगे
जानते नहीं हो
बरसो -बरस यहाँ
दूब का तिनका भी नहीं उगा।

क्या तलाशते हो यहाँ,
यहाँ वन -उपवन
कुछ भी शेष नहीं है।

पीछे कहीं पीछे
जब रचने की प्रकिया जारी थी
प्रतीक्षारत थी तब
कई आँखें
पर अब यहाँ कुछ भी
नहीं है बाकी।

पर फिर भी
आशावादियों के पक्षधर
रहे हो तुम
तलाश लो कोई
एक किरण
उतर जाओ
उस पर हो कर सवार
अंधेरे कुएँ में
जहाँ कुछ पौधे
धूप की इंतजार में अब भी हैं।




3-समय से दोस्ती
आखिरकार समय ने
मेरे भीतर से
रास्ता निकाल लिया है।

लदा- फदा, दौडता-फाँदता
उछलकूद करता
देर सवेर
लगभग हर पल गुजरता है
अब समय मेरे भीतर से।

तेज कानफोड़ू संगीत बजाता
आधुनिकता का जाम थामें
गुजरता हुआ
यह समय बेहद व्यस्त
है आजकलन ।

मैंने भी समय से
दोस्ती कर ली है
एक दूसरे का हाथ थामें
हमें हररोज चहलकदमी करते हुए
देखा जा सकता है।



4-अलविदा


सहजता से उसने
एक ही शब्द कहा-
‘अलविदा!’
पेडों ने सुना
धरती ने सुना
आकाश कब दूर था
उस तक भी
यह अतिम बार कहा गया
शब्द पहुँचा
अलविदा।

आज तक इस शब्द की
प्रतिध्वनियों को मुक्ति नहीं
मिल सकी है।

मेरे आस पास यह शब्द
आज भी उसी सहजता से
टकराता है
जिस सहजता से कहा गया था
कभी
‘अलविदा!’



5-अतीत, भविष्य, वर्तमान

उस सुसताए हुए
अतीत से
जुगलबंदी करना
अपने आप को
नीम बेहोश करने जैसा ही है।

भविष्य की ओर
टकटकी लगाकर
देर तक देखना
ऐसा है
मानो आकाश को और
अधिक चौड़ा कर देना।

वर्तमान से तो
कभी दोस्ती
हुई ही नही
हमेशा वह मुझ से
दो कदम आगे मिला
या दो कदम पीछे।

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6-राग -विराग
शुक्ल पक्ष की
दूर तक फैली हुई
मधुर चाँदनी के नीचे
घेरे में बैठी
स्त्रियों का है यह
रंग- बिरंगा टोला।

छिटके दुख के पार जाने के
उम्मीद में सजी है उनकी
यह महफिल
तमाम आरोह- अवरोह के बीच
झाँकती जिंदगी को संगीत के
सतरंगी रंगों में
ढालने को आतुर हैं ये सभी।

हौले- हौले थाप देती
अपनी खुरदरी हो चुकी
हथेलियों से
घुंघट के धुंधले प्रकाश में
दिन भर खटती
रात के इस पहर
उपक्रम कर मीठा रस
छानती हैं ये सभी
अपने बेहद
सुरीले शब्दों से।

पर अब भी वे
खाली नहीं है
घर के राग- विराग से
उनीदें बच्चों को संभाले हुए वे
वे जल्दी जगाने की चिंता में
घुटी हुई हैं
फिर भी गीतों में एक सी
गति बनाती हुई।

उनके संगीत की लहरियाँ
जम्हाई लेती समूची दुनिया को
जगाने के लिये काफी हैं।

उनकी ढोलक का
उनकी मसरूफियत का
उनके दर्द का दौर
हर युग में जारी है
हमेशा उनके गीत- संगीत को
चाँदनी रातों ने दर्ज किया है।

उनकी आवाजें अब भी
नजदीक ही सुनाई दे रही है
जरा ध्यान से
आप- हम सुने।
थपक – थपक
थपक- थपक
थपक- थपक ।
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