1-ज्योत्स्ना प्रदीप
राम की
चरण पादुकाएँ
मै बनना चाहूँ
तरु ऐसा, जो शीघ्र से ही
सूख जाए
फिर उस लकड़ी से
बनें मेरे राम की
चरण पादुकाएँ ।|
श्री राम मुझे ही पहने तो, चरणों में मैं दबी रहूँगी
क्या जाने सुख
राम मेरा, मैं तो सुखों से लदी रहूँगी
श्रीराम मुझ बिन न रह पाएँगे हर क्षण अपने पास धरे
राजमहल में रहे रामजी या फिर वन में वास करें ।
जब लेंगें जल- समाधि राम ,सरयू
तट मुझे रख जाएँगे
बाट युगों -युगों देखूँगी मैं ,राम जल से अब आएँगे ।
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1-आखर
आखर गंध मेरठ 2002 (सं-रामगोपाल
भारतीय लक्ष्मीनारायण वशिष्ठ डॉ महेश दिवाकर से
साभार )
2- जालंधर
दूरदर्शन से प्रसारित
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2-मंजूषा ‘मन’
1-जीवन
जीवन!
घड़ी के काँटों सा,
घूमता रहे,
घूमता रहे
एक ही दिशा में,
एक रफ़्तार में,
अनवरत,
छूट नहीं है
कि कह ले थकन,
माथे का पसीना
पौंछ कर झटक सकें,
सुन पाएं राहत के
दो बोल भी,
कुछ नहीं इनके लिए
चलने के सिवा।
अगर कभी
जी में आया
या जी ने चाहा
रुक जाना,
सब कुछ रुक वहीँ,
खत्म हुआ जीवन
घड़ी की तरह ही।
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2-ज़िन्दगी
हर सुबह
मेरे दरवाजे पे
आ खड़ी होती है,
हौले से
कुण्डी खड़काती है
जाने किस उम्मीद से
ज़िन्दगी।
मैं हर बार
मुश्कुरा कर
खोल देती हूँ दरवाजा।
और मेरे साथ
हो लेती है ज़िन्दगी,
दिन भर रहती है
मेरे साथ
जीती है पूरा दिन।
पता नहीं सारा दिन
वो मुझे सहारा देती है
या मैं उसे।
पर शाम ढ़ले तक
थक -हार कर
या शायद
कुछ न पाकर
टूटी उम्मीद ले
उदास हो विदा लेती है
ज़िन्दगी।
अगली सुबह
फिर नई उम्मीद
नई आशा के साथ
मेरा दरवाज़ा
खटखटाती है
ज़िन्दगी।
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