शशि पाधा
1
सूरज-रथ मुड़ने लगा, नभ में उत्तर ओर
सोना-सोना हो गई, धूप नहाई भोर।
2
उषा-किरण ने ओढ़ ली, चुनरी सोनल रंग
पर्वत-पर्वत पाँव धरे, चलते संग अनंग ।
3
चौराहे पे चौकड़ी, जलता बीच अलाव
अंगीठी कोने पड़ी, मोल मिला ना भाव ।
4
सूरज-दर्शन की घड़ी, जन-जन करता ध्यान
दादी ने भी कर लिया, हर-हर गंगे स्नान ।
5
छत चौबारे धूम-सी,
उडती देख पतंग
दोपहरी की नींद अब, शोर-शोर में भंग ।
6
दिन-दिन खिंचते जा रहे, लम्बे ताड़- समान
रातों की होने लगी, नाटी- सी पहचान ।
7
नैनन को अब रुच गए, गुड़ तिल खिचड़ी थाल
जिह्वा हँस-हँस पूछती, अखरोटों का हाल ।
8
पनघट पर सजने लगे, त्योहारों के छंद
मेले-ठेले, हाट में,
बिकते बाजूबंद ।
9
खेतों में फसलें खड़ीं,
कृषकों में उन्माद
मेंड़- मेंड़ का चल रहा, हर पल वाद-विवाद ।
10
बदले-बदले- से लगे, शीत ऋतु के ढंग
ओढ़ दुशाला चल पड़ी, पोष मास के संग ।
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