पथ के साथी

Saturday, January 14, 2023

1270-दोहे

 

शशि पाधा

सूरज-रथ मुड़ने लगा, नभ में उत्तर ओर 

सोना-सोना हो गई, धूप नहाई भोर

उषा-किरण ने ओढ़ ली, चुनरी सोनल रंग 

पर्वत-पर्वत पाँव धरे, चलते संग अनंग ।

चौराहे पे चौकड़ी, जलता बीच अलाव 

अंगीठी कोने पड़ी, मोल मिला ना भाव ।

4  

सूरज-दर्शन की घड़ी, जन-जन करता ध्यान 

दादी ने भी कर लिया, हर-हर गंगे स्नान ।

5

 छत चौबारे धूम-सी, उडती देख पतंग 

दोपहरी की नींद अब, शोर-शोर में भंग । 

6

दिन-दिन खिंचते जा रहे, लम्बे ताड़- समान 

रातों की होने लगी, नाटी- सी पहचान ।

नैनन को अब रुच गए, गुड़ तिल खिचड़ी थाल 

जिह्वा हँस-हँस पूछती, अखरोटों का हाल ।

8

पनघट पर सजने लगे, त्योहारों के छंद 

 मेले-ठेले, हाट में, बिकते बाजूबंद 

9

खेतों में फसलें खड़ीं, कृषकों में उन्माद 

 मेंड़- मेंड़ का चल रहा, हर पल वाद-विवाद ।

10

बदले-बदले- से लगे, शीत ऋतु के ढंग  

ओढ़ दुशाला चल पड़ी, पोष मास के संग ।

 

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