1- सत्या शर्मा
' कीर्ति 'की कविताएँ
1- पुरुष
जाने कितनी सारी बातें
रख लेता हूँ खुद के ही अंदर
कहता नहीं
हूँ किसी से
अपनी नम होती आँखें भी
अकसर छुपा सा लेता हूँ
कितनी बातें जो बेधती है मुझे
जैसे मेरे पिता द्वारा दी गई
लम्बी दहेज़ की लिस्ट पर मेरा सर
शर्म से झुक जाना
तुम्हें
विदा कर लाते वक्त
तुम्हारे आँसुओं में खुद को
भीगते देखना
मेरे घरवालों द्वारा तुम्हें
दिए तानों पर आंतरिक वेदना
महसूस करना
तुम्हारी गर्भ की पीड़ा में
खुद भी छटपटाना
तुम्हारे बुखार में जलते बदन को देख
अंदर से डर सा जाना
तुम्हारे थके चेहरे को देख तुम्हारे लिए
एक कप कॉफ़ी बनाना
जब मैं तैयार होऊँ
तुम्हारी आँखों में खुद को
ढूँढना
लोगों की भीड़ में तुम्हारा
सानिध्य चाहना
मैं
रख लूँगा
ये सारी की सारी बातें
नहीं लिखूँगा कभी अपने
मन की बातें
लिखता रहूँगा
तुम्हारे सौंदर्य पर कविताएँ
तुम्हारे त्याग और बलिदानों की
अनगिनत बातें
पर नहीं लिखूँगा अपने
सारे जज़्बात
समेटता रहूँगा खुद में ही
खुद को उम्र भर
नहीं लिखूँगा अपना
टूटना और बिखरना
क्योंकि मैं हूँ एक पुरुष
नहीं लिखूँगा अपने ऊपर
कोई कविता .......
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2-मैं माँ होना चाहती हूँ
एक बंजर भूमि- सा अस्तित्व लिये
संवेदना के तीरों पर खड़ी कुछ
अधूरी हसरतें हैं मेरी
कि मैं माँ होना चाहती हूँ
हाँ , मैं
बंजर हूँ
तो क्या मेरी ममता सिर्फ़ इसलिए अपरिभाषित रह जाएगी
कि मैं माँ नही हूँ ।
पर है क्या कसूर मेरा
इस जैविक प्रक्रिया को मैंने तो नहीं किया था
सृजित
इस अधूरेपन को दूर करके
पूर्ण मातृत्व का एहसास करना चाहती हूँ।
क्या करूँ उर्वर नही मेरी कोख
पर बच्चे के नन्हे कोमल स्पर्श
अपने मन , अपनी आत्मा ,
अपने शरीर पर महसूस करना चाहती हूँ।
लोग कहते हैं तुम अपूर्ण हो
पर देखा है मैंने कली खिलते अपने भीतर
छोटी -
छोटी अँगुलियों को सहलाया है अपने ओठों से
मेरे अंदर भी अनेक धाराएँ है ममता की
जो दूध की नदियाँ बहाना चाहती है
क्या करूँ
कि कोंपल नहीं फूटती मेरे अंदर
पर देखो कैसे मेरी रुह ने लिपटाए हैं
हजारों भ्रूण पुष्पित होने के लिए
कि कैसे मेरी हृदय की कोख ने धारण की हैं
नव जीवन की अनगिनत कल्पनाएँ
हाँ, मैं
करती हूँ महसूस बढ़ते हुए जीव अपने अंदर ।
उसकी चंचलता , उसके पैर मारना उसके हिलने- सा।
उसके तुतलाते शब्द सुन पूरी रात जागने -सा
उसके गीले कपड़े को अपनी ममता से सूखने -सा
उसकी मासूम हँसी पर पूरी उम्र गुजार देने सा ....
लोग कहते हैं बहुत कष्टकारी होता है
प्रसव का
सुखद पल
मैं उस सुखद पल के कष्ट को झेलना चाहती हूँ
हाँ , बंजर, पर माँ बनना चाहती हूँ ...
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3-मन पंछी
और फिर
मन का पंछी
उड़ जाएगा छोड़
एक दिन ये शरीर...
ये घर , ये
दीवारें
बस यूँ ही देखते रहेंगे
मेरा मरना
पुकारें मुझे
पर उनकी आवाजें
यूँ ही गूँजकर दब सी जाएगी
पर नहीं सुनूँगी मैं
नही सुनेगा कोई भी
सब मेरे निर्जीव से शरीर के पास
अपने - अपने हिसाब से
करते रहेंगे ईश्वर पर
आरोप - प्रत्यारोप...
फिर भी नही उठूँगी मैं
चाहे चाय का खौलता पानी
सुख ही जाए
चाहे गीले आटे से किसी और से
रोटियाँ बन
न पाएँ
चाहे शाम की पूजा अधूरी रह जाए
नहीं उठूँगी
मैं
शायद ऑफिस से आ किसी रोज
तुम मुझे पुकारने लगो
शायद बच्चे किसी दिन मेरे
हाथों का खाना खाने
मचल उठें
पर फिर भी
नहीं
लौटकर आऊँगी मैं;
क्योंकि मन का पंछी
तो उड़ चुकेगा
जीवन की
सरहदों के पार ....
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