1-शहर सयाने
डॉ. सुरंगमा यादव
शहर हो गए हैं बड़े ही सयाने
मिलेंगे ना तुमको यहाँ पर ठिकाने
फटी हैं बिवाई, पड़े कितने छाले
सिकुड़ती हैं आँतें, मिले ना
निवाले
है लंबा सफर,ना गाड़ी ना घोड़ा
कहाँ जाएँ अपना जीवन बचाने
श्रमिक जो ना होंगे, तो कैसे
चलेंगी
तुम्हारी मिलें, कारखाने, खदानें
तुम्हारे लिए खून इनका है पानी
भरे इनके दम पर तुम्हारे खजाने
इन्होंने बनाए नर्म रेशम के
कपड़े
मगर इनके तन को मिलते ना लत्ते
सैकड़ों जोड़ी जूता जिन्होंने बनाए
रहे पाँव नंगे बीते ज़माने
ये बच्चे, ये बूढ़े और नारियाँ
उठाते हैं कितनी दुश्वारियाँ
समय आज कैसा कठिन आ गया
छिनी रोजी रोटी खोए ठिकाने।
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2-आग कैसी लगी
रमेशराज
जल गयी सभ्यता, आज पशुता हँसे।
दोष जिनमें नहीं
गर्दनों को कसे, आज फंदा हँसे।
नागफनियाँ सुखी
नीम-पीपल दुःखी, पेड़ बौना हँसे।
सत्य के घर बसा
आज मातम घना, पाप-कुनबा हँसे।
बाप की मृत्यु पर
बेटियाँ रो रहीं, किन्तु बेटा हँसे।
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3- जीवन व्यथा
सविता अग्रवाल 'सवि'
कैनेडा
मंदिर में ऊँचे घंटे- सी
दूर है मंज़िल पास नहीं
उछल- उचककर पहुँच ना पाऊँ
पाँव हैं छोटे, पहुँच ना पाऊँ
भटक रही हूँ दिशाहीन- सी
कौन दिशा को मैं अपनाऊँ
संबंधों की गठरी थामे
खोल-खोलकर गिनती जाऊँ
किससे नाता पक्का जोड़ूँ ?
किस नाते को मैं सरकाऊँ
शशोपंज में पड़ी हुई हूँ
किससे सच्ची प्रीत लगाऊँ ?
ठोकर खाऊँ और गिर जाऊँ
उठकर पूरी सँभल ना पाऊँ
कैसी व्यथा भरी जीवन में
किसको जाकर मैं बतलाऊँ ?
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