1-अनुपमा त्रिपाठी ‘सुकृति’
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कल- कल बहती हुई नदी
यूँ ही तराशती है
तिकोने पत्थरों को
और ले जाती है चुभन
हर बार
अपने साथ
इस तरह
कि तराशते रहने से ही
गोल पत्थरों के होने का वजूद है।
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रात फिर नींद नहीं आई
कि अनायास महकती रही यादें
कि हरसिंगार बरसता रहा टप- टप
भीनी- भीनी ख़ुशबू से
शब्दों का बरसना देखती रही
और बुनती रही नायाब सी
अपनी प्रेमासक्त कविता...!!!
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2-जीवन की कीमत/ डॉ.
सुरंगमा यादव
चंद सिक्के बड़े जिंदगी से हुए,
जीवन की कीमत सिफर हो गई
पत्थरो के कलेजे पिघलते नहीं
मिन्नतें तो सभी बेअसर हो गईं
गिड़गिड़ाई बहुत हाथ भी जोड़कर,
अनसुनी हरेक याचना हो गई
जिस गुलिस्ताँ में
उसने खिलाए सुमन
हर क्यारी सामने ही धुआँ हो गई
सात फेरों की अग्नि चिता थी बनी
जिसमें जीते जी राख कामना हो गई
न सती वो हुई, न ही जौहर किया,
मैं सुहागन मरूँ यही की थी दुआ
वो सुहाग के हाथों होलिका हो गई
जान पर बनी, पाँव देहरी लाँघ चले
पर ज़माने की नजरें, की बेड़ियाँ हो गईं
सुलह समझौतों के कितने चले सिलसिले
आखिरी घड़ी भी आज आ खड़ी हो गई
कितनी चीखें दीवारों से टकराती रहीं
देहरियों पे जिंदगी स्वाहा हो गई।
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