1-नंदा पाण्डेय
1-महामिलन
आज फिर नदी
अपने अस्तित्व को
विलीन करने की
सोच रही है
वह चल पड़ी फिर
समुद्र की ओर
समुद्र लंबे समय से
नदी की प्रतीक्षा में था
और तड़प रहा था
इस मिलन के लिए
बिना इस मिलन के
वह क्षीण हो रहा था
सोच में था समुद्र कि
क्या उसका विशाल अस्तित्व
यूँ ही समाप्त हो जाएगा
विरह की ज्वाला में
उसने दोनों बाहों को
फैलाकर दिया
आमंत्रण मिलन-भाव से
नदी भी तो
इसी मिलन के लिए
निकली थी
पर्वत- शिखर से
उसने अपना
अंतिम समर्पण
समुद्र की बाहों में कर दिया
दोनों कुछ देर
साथ रहे
फिर एक ही जल हो
बह चले
यही तो 'महामिलन'
था
उन दोनों का
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2-नदी
बड़ी सहजता से
एक अटूट विश्वास
के साथ
सारे बंधन को उतारकर
सौंपकर अपना
सब कुछ...
अपनी नियति
अपना द्वंद्व
अपनी आशा
अपनी निराशा
अपनी व्यथा
अपना मान
अपना अभिमान
अपना भविष्य
और अपना वर्तमान
भागते हुए
आ लिपटती थी
जैसे वर्षों के बिछड़े
अपनी सुध-बुध भूल
एक दूसरे में समा जाने को
हो गए हों आतुर
उनके इस आंतरिक और हार्दिक
मिलन पर तो जैसे
प्रकृति भी मुग्ध
हो जाती थी
उसकी सुगंध से
मिलता था उसको
एक पार्थिव आनंद
होता था अहसास
खुद के जिंदा होने का
कहीं दूर बह जाने से
कुछ नया ज़रूर मिलता,
पर जीवन का अर्थ और
भीतरी तलाश की तुष्टि
जहाँ निर्वाक् होकर
जीना चाहती थी
अपनी उदासी के
हर क्षण को,
शायद यह किनारा ही था
वैसे मिट्टी की खुशबू
आज भी पसंद है उसको!
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3-कुछ कहना चाहती थी
कुछ कहना चाहती थी वो
पर न जाने क्यों
'कुछ' कहने की कोशिश में
'बहुत-कुछ' छूट जाता था,
उसका
हर रोज करीने से सजाने बैठती
उन यादों से भरी टोकरी को
जिसमें भरे पड़े थे
उसके बीते लम्हों के
कुछ रंग-बिरंगे अहसास,
कुछ यादें,कुछ वादे
और भी बहुत कुछ...
गूँथने बैठ जाती वो
उन लम्हों को
जिसे उन दोनों ने
जीभरके जिया था...
वो जानती है अब
इसका कोई मतलब नहीं
फिर भी गुज़रती है
हर दिन उन लम्हों के
बिल्कुल पास से...
इस उम्मीद में कि शायद कोई
नन्हा सब्ज निकलेगा फिर से
पर सूखे दरख़्त भी कभी हरे हुए हैं भला
यादों की मियाद भी तय होती है शायद
ये वो जानती है
यादें कुछ भी नहीं बस बेमतलब का
शृंगार ही तो है मन का
जब जी चाहे कर लो
जब जी चाहे उतार दो
पर!
कैसे कह दे कि
कोई रिश्ता नहीं है उससे
जिस अपनेपन
और भावना की डोर को पकड़कर
उसकी गहराई से बेखबर
सारी दूरियों को
पार कर लेना चाहती थी
जानती थी
डूबना वर्जित है
इसलिए न डूब सकी,
न बच पाई
आज अपने शब्दहीन एकांत में
रोक लेना चाहती है
उन्हीं लम्हों को
पूछती है-
मन में हलचल करती
उन जलतरंगों से कि
क्यों दोहराती है
बार-बार उसका नाम
क्यों बंद आँखों से करती है
प्रार्थना उसकी सलामती के लिए
क्या...?
लौटेगा वो फिर से उसकी ज़िदगी में
प्रार्थनाओं में कबूल हो गई
मिन्नत की तरह
पूछती है अपनी ही आत्मा से
बार-बार...हर बार...!
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