रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
पथ के साथी
Wednesday, March 23, 2022
Saturday, March 19, 2022
1194-सुख-दुख
प्रीति अग्रवाल
दुःख में, जाने ऐसा क्या है
एक बार की अनुभूति भीबरसों तक साथ रहती है
उसी शिद्दत से बार- बार,
हर बार मिलती है...
सुख में वो बात नहीं...
उसकी यादें
धुँधली हो जाती हैं
बिसरी अनूभूति पाने की धुन
फिर सवार हो जाती है
दर -दर घुमाती हैं
होड़ लगवाती
फिर भी
उस भूले सुख को
दोहरा नहीं पाती है...
कैसी विडंबना है,
दुख कोई नहीं चाहता
पर वो चाहे कितना ही पुराना हो,
साथ निभाता है
जब भी याद आता है
उसी गुज़रे दौर में ले जाता है,
सारी बारीकियाँ
एक बार फिर दोहराता है।
सुख, सब चाहते है
पर, वो चाहे
कितना ही नया क्यों न हो
असन्तुष्ट ही रखता है
'बस, एक बार और '
इस अनबूझ, अतृप्त चाह में
दौड़ाए रखता है...
कहीं ऐसा तो नहीं
दुख, चिरकालिक है
स्थायी है,
सुख, क्षणभंगुर है
अस्थायी है...?
आखिर कुछ तो कारण है
कि दुख याद रहता है
सुख भूल जाता है.... !
Thursday, March 17, 2022
1193
डॉ. सुरंगमा यादव
दोहे
1
होली के उल्लास का, कुछ मत पूछो हाल।
हर मुखड़े पर रंग है, सब मिल करें धमाल।।
2
होली की यह रीत है, बरसे सब पर प्रीत।
देख कमाल गुलाल का, रूठे मन लें जीत।
3
साजन से अँखियाँ मिलीं, मुखड़ा हुआ अबीर
मन तेरे ही रंग रँगा अब मत करो अधीर।।
4
फागुन मस्ती में भरा,मादकता चहुँओर।
मन सौरभ-सौरभ हुआ, ठहरे न
एक ठौर।
-0-
2-कुण्डलिया
डॉ. उपमा शर्मा
होली बिन खेले हुई, मैं ते ऐसी लाल।
तुमने जब से है भरा, उर ये प्रेम-गुलाल।
उर ये प्रेम गुलाल,धूम होली की न्यारी।
रंगों की भरमार,रँगी प्रियतम की प्यारी।
पिचकारी की मार, और ये हँसी -ठिठोली।
भूली सब कुछ आज, सजन,मैं तेरी
हो ली।
-0-
3-वसंत और फागुन –
डॉ. सुरंगमा यादव
वसंत और फागुन ने देखो
मिलकर रंग जमाया!
दोनों हैं रंगरेज सखी
एक ने पहले मन रंग डाला
दूजे ने फिर तन भी
इनके आने की आहट से
सबका मन हर्षाया।
आँखों में सरसों की आभा
साँसों में अमराई
कोयल गाती पंचम स्वर में
सोया राग जगा है मन में
फागुन है मनभाया।
कंत गये परदेस सखी री!
दहक उठे यादों के टेसू
चटक रंग भी फींके लगते
उन बिन सूने घर-आँगन में
रह-रह मन अकुलाया।
शिशिर विदा की है बेला
सुमन गुच्छ ले उसे भेंटने
खिला वसंत नबेला
धूप सयानी देखकर
दिवस मगन मुसकाया।
ऋतु आयी अनुकूल बड़ी
होली का उल्लास बढ़ा
वन-बागों ने भी उत्सव में
पहने वसन नवीन
धरा मगन,जड़-चेतन झूमे
उर आनंद समाया।
-0-
Sunday, March 13, 2022
1192-युद्ध केन्द्रित कविताएँ
डॉ. नूतन गैरोला
युद्ध के बीच -1
वे जो मारे जा रहे हैं
और वे जो मार रहे है
दोनों मर रहे हैं
मारते- मरते वे खुद
को मरने से बचाते
मार रहे है क्योंकि वे मरना नहीं चाहते
उन्हें झोक दिया गया है युद्ध के मैदान में
जो नफ़रतों के लिए नहीं
प्रेम के लिए जीते हैं |
वे अपनी आवाज पहुँचाना चाहते हैं
अपनी माँ, पिता, भाई, बहन, प्रेमिका के पास
उनकी सुरक्षित गोद में वे एक झपकी लेना चाहते हैं
जानते हैं वे कि उनके अपने भी ना सो पाए होंगे
वे कहना चाहते हैं उनसे
कि फिक्र मत करना
पर वे अपनी बात दिल मे दबाए
धमाके के बाद चुप्पे से रक्तपुंज में ढल जाते हैं।
किसी को नहीं पता वे कौन थे
चिरनिद्रा को प्राप्त उनकी देह किधर गई?
कब रुकेगा युद्ध
कब लौटेंगे सैनिक अपने घरों को?
वे
लोग जो अपने देशों को
जाना चाहते थे
शहर में बमबारी की चेतावनी के बीच
उन्हें रेलों से उतार दिया गया
सीमाओं पर रोका गया
चमड़ी के रंगों के आधार पर
बंदूक की बट से पीटा गया
युद्ध के मैदान में जबरन उन्हें रोका गया।
उनका देश दूर से उन्हें पुकारता है
सुरक्षित लौट आओ मेरे बच्चों।
पर कुछ हैं कि उन्हें शहरों में जकड़ लिया गया।
क्योंकि
जब मानवता का ह्रास होता है, तभी युद्ध शुरू होते हैं
और युद्ध होने पर मानव
ही नहीं मरते
बची-खुची मानवता
भी मर जाती हैं।
युद्ध के बीच 3 ( मैं और जंग )
मैं टेलीविजन के आगे
थरथराती रही
बीते कई दिनों से,
देर रात तक, अलसुबह और फिर दिन ढलने तक सतत
मुझे सुनाई देती रही हैं हजारों चीखें क्रंदन
जिन्हें रौंदते रहे बख्तरबंद टैंक, युद्धपोत,
हवाईजहाज के कोलाहल और धमाके।
टैंक और जहाज भी जमींदोज होते हुए
शहर में मौत का ऐलान करती सायरन की आवाजें
और विचलित करता दबा हुआ
सन्नाटा,
धुआँ- धुआँ - सा फैला हुआ
कि जल, थल, वायु
सुरक्षित नहीं वहाँ
चिथड़ा- चिथड़ा
धमाकों से फटते- जलते शहर
बर्फीले बंकरों में छुपे भूखे प्यासे निरीह बच्चे
माँ की गोद में सर रख कर सोने को आकुल बच्चे
बारूद और मिसाइलों की आसमानी बरसात
जैसे बरस रहे हो ओले
उनके बीच
जान हथेली पर रख मीलों
तक भागते
अनजाने ठिकानों पर रुक
इंतजार करते हों किसी देवदूत का
किसी राहत का
कब खत्म होगा युद्ध ..
मेरा दिल यकायक रुकता है
डर से
मुझे सुनाई देती हजारों माँ-बहनों की पुकार आँसू
दिखाई देती है पिता भाई के माथे पर
गहराती चिंता की रेखाएँ,बेसब्र इंतजार
वे भी अपने बच्चों की नाउम्मीदी में
उम्मीदों की राह पर मन के दीये जलाते राह तक रहे हैं
जिनके बच्चे युद्ध के लिए भेजा गए
वे भी जिनके बच्चे अध्ययन
के लिए भेजा गए
जो
क्या वे सब लौट पाएँगे युद्ध की भयानकताओं के बीच से
इधर कमरे में ही मेरी रूह काँप जाती है
मैं टीवी देखते रोज युद्धभूमि में पहुँच जाती हूँ
मैं अब टेलीविजन नहीं देख पाऊँगी
हृदय फटता है।
कब सब सुरक्षित होंगे?
कब रुकेगा युद्ध?
-0-
Thursday, March 10, 2022
1191-बरसाई चाँदनी
सेदोका- रश्मि विभा त्रिपाठी
1
मेरे हेतु की
प्रसन्नता प्रणीत
प्रणम्य तुम मीत
पाके तुम्हारा
अनुराग पुनीत
मैं हूँ अनुगृहीत।
2
जब भी हुई
तनिक भयभीत
गाए कामना- गीत
निर्भय रखे
मुझे तुम्हारी प्रीत
आभार!!! मेरे मीत।
3
तुम मिले तो
मिट गया मलाल
मन है खुशहाल
मेरे स्वर को
दे रहे तुम ताल
दिन- महीने- साल।
4
तुम शशि- से
आए लेके जुन्हाई
तम को दी विदाई
जग- अमा में
ज्योति मुझे दिखाई
जीर्ण आशा जिलाई!!
5
प्रिय चंदा- से
बरसाई चाँदनी
अमृत- धारा बनी
आँगन भरा
ढेरों चाँदी की कनी
अहा!!! जीवन धनी।
6
तुमने सींचा
नव आशा से भरा
मन का बाग हरा
तुम्हारी प्रीति
प्रिय! मेरी उर्वरा
खिली, सौरभ झरा।
7
धरे हाथों में
भावों के मुक्ताहार
भव्यतम सत्कार
पावन प्रीति
पग रही पखार
प्रिय आ गए द्वार।
8
कर न पाऊँ
अपनी श्रद्धा व्यक्त
आखर हैं अशक्त
प्रेम आराध्य
प्रिय की बनी भक्त
जग से मैं विरक्त।
9
प्रिय तुमने
सुधारी चाल ग्रह
शांत सारा कलह
मुझे उबारा
आशीर्वाद दे यह
'तू सदा सुखी रह'।
10
अमा की घड़ी
आसन अनायास
लगाएँ मेरे पास
प्रिय चंदा- से
बाँटें मुझे उजास
विफल तम- त्रास।
-0-
Tuesday, March 8, 2022
1190
दोहे
1-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
मधुर भोर को
ढूँढते तुझमें पागल नैन ।
साँझ हुई फिर रात भी, तरसे
मन बेचैन।
2
चिड़िया पिंजर में
फँसी, दूर बहुत आकाश।
पंख कटे स्वर भी
छिना, पंजों में भी पाश।
-0-
2-डॉ. उपमा शर्मा
नारी तू नारायणी,फूँक
शक्ति का शंख।
मुक्त गगन में उड़
ज़रा,फैला अपने पंख।
-0-
3-कभी सोचती हूँ
प्रियंका गुप्ता
कभी
सोचती हूँ
रेत
बन जाऊँ
पर
फिसल जाऊँगी हाथों से;
कभी
बन जाऊँ अगर
काँच
का एक टुकड़ा
तो
चुभ जाऊँगी कहीं
खून
निकल आएगा;
बर्फ़
सी जम जाऊँ अगर
तो
धमनियों में बहता खून
न जम
जाए कहीं;
चलो,
सोचती
हूँ
क्या
बन जाऊँ
जो तुम्हें
पसन्द हो
पर
फिर लगता है
मैं 'मैं' ही रहूँ तो बेहतर,
वरना
मेरे
'मैं' न होने पर
तुम
प्यार किससे करोगे ?
-0-
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
क़ैद हो गई
पिंजरे में चिड़िया
भीतर चुप्पी
बाहर अँधियार
मन में ज्वार,
चहचहाना मना
फुदके कैसे
पंजों में बँधी डोरी
भूली उड़ान,
बुलाए आसमान।
ताकते नैन
छटपटाए तन
रोना है मना
रोकती लोक-लाज
गिरवी स्वर,
गीत कैसे गाएँगे
जीवन सिर्फ
घुटन की कोठरी
आहें न भरें
यूँ ही मर जाएँगे।
चुपके झरे
आकर जीवन में
बनके प्राण
हरसिंगार-प्यार,
लिये कुठार
सगे खड़े हैं द्वार
वे करेंगे प्रहार।