पुलिया
भीकम सिंह
गाँव के सिवानों पे
खेतों के बीचों- बीच
ईंट और सीमेंट से
सम्बंध तोड़ चुकी
एक पुलिया थी।
इस पुलिया पर
घास के गट्ठर ढोते
धूप में तपते बैल
जुआ उतारकर
अपना मुँह धोते।
इस पुलिया से ही
खेतों की रंगीनी
परवान चढ़ती
और सड़क की दौड़
रफ्तार पकड़ती।
इस पुलिया से ही
खाँसते बूढ़ों की
बेरुखी के ढोल बजते
और उनमें डर की
बारात चढ़ती ।
सब अपने-अपने बूते
पुलिया पर ही रोते
पुलिया के कंधों पर
बहते ही रहते
आँसुओं के सोते।
रात के नंगे पैर
यहीं पर गायब होते
सूर्य के घोड़े
किरणों के बीज
इसी पुलिया से बोते।
एक तरह से पुलिया
गाँव की तिथि रेखा-सी
सबका समय बदलती
खेतों का आर्त्तनाद
नाली से बयाँ करती ।
निरर्थक और मिथ्या
सार्थक और समृद्ध
पुलिया के जबड़ों तक
जब पहुँचता पानी,
तो फाइलें ही भरतीं ।
दुःख की तरह टूटता
ये पुलिया ही एक ,
ठौर थी
यह बात और थी।
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2-अनुपमा त्रिपाठी ‘सुकृति’
1
काँपते हाथों से लिखे अक्षर
कह गए बीते हुए जीवन की
अधूरी -सी पूरी कहानी
कहीं वो छिपा- छिपा सा दर्द
कहीं वो नदिया की बहती- बहती सी रवानी
कौन है जो जीवन की धूप में
मुझे
छाँव देता है
जीवन की नदिया में उस पार
जाने
मुझे नाव देता है
भटक- भटकके जब थक जाते कदम
फिर सपनों को पनाह
मेरी लेखनी को ठाँव देता
है
2
सुरभिमय फाल्गुन की उन्मद
बयार
बहती भर लाती युग- युग जीवन सार
प्रस्फुटित पल्लवित धरा
का रुप मनोहर
सुगुम्फित भावों का हो रहा
शृंगार
और लेता मन पंख पसार
अभिनव गीत गाता खुश हो बार- बार
बार- बार !!
श्यामल बादल से आच्छादित
घन
नव स्वप्न उल्लसित मन
घन घन घनन घनन
बिजुरिआ चमके
थिरके ये तन
सखीरी आज घर आए सजन !!
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3
विपदा की असंख्य सीढियाँ
लाँघते हुए
मुखरित होता है जब मौन
चंद शब्दों में सिमटा- सिमटा -सा
भावों में बिखरा- बिखरा- सा
तुम्हारे और मेरे बीच का
वही सेतु
सजीव हो उठता है
और नारंगी आसमान चहक उठता
है
नीड़ की ओर
उड़ते हुए पंछियों से.....!!!
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