भीकम सिंह
आज देखो फिर
वो -
बादल ओढे
छप छप करती
कल-कल बहकाए ।
एक नदी
वादों से भागे
रोज मेरे आगे
नया-सा मोड़
काटने आए
।
-0-
2-चाँद
छू के आँखों को
जो छिपा गया
काश !
बादल हटाके
धरा पे उतर आए ।
क्यों रोज
बत्तियाँ बुझाते ही
वो ताकने
मुँडेरें -
फाँदकर आए ।
-0-
सोच में है
और कुछ
पहुँच में है
और कुछ
।
सबको
कुछ-कुछ
और
कुछ को सब कुछ ।
ये विषमता
सरकारें करती
सिसकियों में रहता
श्रम का सब कुछ
।
-0-
मन करे
प्रश्न कई
सावन आना-कानी ।
आसक्ति
और विरक्ति में
यूँ होती खींचातानी ।
अपने पर
काबू रखने की
सीमा किसने जानी
।
-0-
5-धरा -1
पता है उसे
कि अनचाहे लोग
थम जाने तक
उसका -
करते रहेंगे भोग
इसी अफसोस में
गति मान है
धरा
।
-0-
अपने हिस्से का सूरज
जो विदाई में लाई थी,
धरा
उसका सर्वांश
तैरते नक्षत्रों
उल्का पिंडों में
बांट आयी
और उठा लिया
फिर मुँह
सूरज की ओर
पुत्री जानती है -
पिता की
दरियादिली का छोर
।
सिवानों पे
पहुँचे हैं गाँव
खेत-खलिहानों के
लगा कर पाँव
।
घर आंगन
चूल्हा-चौका
बर्तन झाडू और पौंछा
साथ गई नीम की छाँव
।
संदर्भ सभी
पुराने घर में
दादा-दादी भी मुश्किल में
करते रहते काँव-काँव ।