पथ के साथी

Wednesday, June 30, 2021

1112- कविताएँ

 भीकम सिंह 

 1-नदी 

 

आज देखो फिर 

वो -

बादल ओढे 

छप छप करती 

कल-कल बहका

 

एक नदी 

वादों से भागे 

रोज मेरे आगे 

नया-सा मोड़ 

काटने आए 

-0-

 

2-चाँ 

 

छू के आँखों को

जो छिपा गया 

काश !

बादल हटाके 

धरा पे उतर आ

 

क्यों रोज

बत्तियाँ बुझाते ही

वो ताकने 

मुँडेरें  -

फाँदकर आ

-0-

 3-विषमता 

 

सोच में है 

और कुछ 

पहुँच में है 

और कुछ 

 

सबको 

कुछ-कुछ 

और

कुछ को सब कुछ 

 

ये विषमता 

सरकारें करती 

 सिसकियों में रहता 

श्रम का सब कुछ 

-0-

 4-सावन

 

मन करे 

प्रश्न कई 

सावन आना-कानी ।

 

आसक्ति 

और विरक्ति में 

यूँ होती खींचातानी ।

 

अपने पर

काबू रखने की 

सीमा किसने जानी 

-0-

5-धरा -1

 

पता है उसे 

कि अनचाहे लोग 

थम जाने तक

उसका -

करते रहेंगे भोग

इसी अफसोस में 

गति मान है 

धरा 

-0-

 6-धरा-2

 

अपने हिस्से का सूरज 

जो विदाई में लाई थीधरा 

उसका सर्वांश 

तैरते नक्षत्रों

उल्का पिंडों में 

बांट आयी 

और उठा लिया 

फिर मुँह 

सूरज की ओर

पुत्री जानती है -

पिता की 

दरियादिली का छोर 

 -0-

 7-सिवाना 

 

सिवानों पे 

पहुँचे हैं गाँव 

खेत-खलिहानों के 

लगा कर पाँव 

 

घर आंगन 

चूल्हा-चौका 

बर्तन झाडू और पौंछा 

साथ गई नीम की छाँव 

 

संदर्भ सभी 

पुराने घर में 

दादा-दादी भी मुश्किल में 

करते रहते काँव-काँ