रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
(28-3-86, रसमुग्धा अक्तु-दिस-86)
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
टूट गए सब बन्धन,
पर विश्वास नहीं टूटा।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
ठेस लगी बिंधे मर्म को,आँसू बह आए ।
कम्पित अधर व्यथा चाहकर भी न कह पाए ।
साथ निभाने वाले पलभर संग न रह पाए ।
कष्ट झेलने का मेरा
अभ्यास नहीं छूटा ।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
पथ की बाधा बनकर बिखरे थे, जो-जो भी शूल ।
आशा की मुस्कान से खिले, पोर-पोर में फूल ।
खिसकी धरा पगतल से,
आकाश नहीं छूटा।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
थीं रुकी उँगलियाँ कुपित समाज की मुझ पर आकर
अपने मन का संचित कूड़ा, फेंक दिया लाकर ।
मुड़ी प्रहार की प्रबल नोंकें, मुझसे टकराकर ॥
रोदन ने मथ दिए प्राण,
पर हास नहीं छूटा ।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
कभी पतझर कभी आँधी बन, सूने जीवन में ।
चुभ-चुभकर उतरी बाधाएँ, विमर्दित मन में ।
मिटे अनेक प्रतिबिम्ब बन नयनों के दर्पन में।
टूटी आस की डोर,
किन्तु प्रयास नहीं टूटा।
छूटे पथ में सब साथी, विश्वास
नहीं छूटा॥
(8-4-1974: वीर अर्जुन
दैनिक, दिल्ली, 9 फ़रवरी 1975)
रश्मि विभा त्रिपाठी
1-दोहे- रश्मि विभा त्रिपाठी
1
मन की वीणा पे हुआ, स्वत्व तुम्हारा मीत।
धड़कन में तुम गूँजते, बनकरके संगीत।।
2
जोड़ दिया तप से सदा,
मन का टूटा तार।
मेरी साँसों का तभी
, बजने लगा सितार।।
3
पढ़ लेते इक साँस में, इन होठों का मौन।
सच बतलाओ आज ये, आखिर तुम हो कौन।।
4
तुम्हें जुबानी याद है, मेरा सारा हाल।
भाव तुम्हारे हो गए, अब गुदड़ी के लाल।।
5
जीवन में अब क्या बचा, टूट गई हर आस।
साँस तुम्हीं पर ही टिकी, तुम रखना विश्वास।।
6
नीरवता में हास का, बज उठता है साज।
जिस पल आकर तुम मुझे, देते हो आवाज।।
7
तुमने समझाया मुझे, जीवन का यह मूल।
मौसम ने डपटा बहुत, डरा न खिलता फूल।।
8
बड़े बेतुके लग रहे, राहों के ये शूल।
मेरे गजरे में गुँथे, आशीषों के फूल।।
9
प्रियवर तुम जीते रहो, खिलो सदा ज्यों फूल।
जग- जंगल में ना चुभे, तुमको कोई शूल।।
10
पता नहीं कैसी खिली, अब दुनिया में धूप।
पलक झपकते बदल रहा, सब रिश्तों का रूप।।
11
जग- जंगल में मैं चलूँ, पकड़े तेरा हाथ।
विपदा दम भर रोक ले, छोड़ूँगी ना साथ।।
-0-
2-कपिल
कुमार
1
ठण्डी-ठण्डी पवनें
धीरे-धीरे गिरतीं
बारिश की बूँदें
टपरी पर चाय पीते लोग
हाथ में सिगरेट थामें
चौराहे से गुजरते
प्रेमी जोड़े
हवा में हाथ फैलाते
जोर-जोर से चिल्लाते
"वाह! मौसम"।
वही दूसरी ओर
एक दम्पती
जिसका अठारह-उन्नीस वर्ष का
नौजवान लड़का
उसी चौराहे पर
सड़क दुर्घटना में मारा गया है।
उनके लिए
बारिश की बूँदें
मानो
शरीर पर गिरते अंगारे,
ठण्डी-ठण्डी पवन
ज्येष्ठ की लू।
2
मौन!
किसलिए साधा है
यदि तुम अनभिज्ञ हो
तुम्हें उत्सुक होना चाहिए
अंतर ढूँढने में
क्या अंतर है?
मूक रहने
और
मूकबधिर होने में।
3
मेरी सोचो
कितने दिन लगाए
हिम्मत जुटाने में,
तुम्हें तो बस
प्रेम-प्रस्ताव पर
हाँ! कहना है।
4
दफ़्तर के ज्यादातर
हुनरमंद कर्मचारी
जकड़े हुए मिले
दासता की बेड़ियों में,
उनका
गलत और सही का
तार्किक निर्णय
दबा हुआ है
वेतनमान
प्रलोभन राशि के
मलबे तले।
गीत मैं गाता रहा - सॉनेट
मूल ओड़िआ सॉनेट - मानस रंजन महापात्र
चलता रहा मैं एकाकी
ढूँढने एक नव प्रभात
पथ हुआ प्रलंबित जीवन
रह गया असमाप्त
पूर्ण हो यह जीवन -की
याचना यहीं तुम्हारे द्वार
तुम रहे किसी निभृत
मंदिर में बन अपरिचित अवतार
गतिहीन हुए मेरे
कर-पद,शीश भी हुआ
क्लांत अमाप
परिचित थे जितने सब
लौट गए साथ लिए अनुताप
थी कभी पुलक प्रेम की
..था कितना आनंद उल्लास
सबकुछ हुआ अंत,हुआ शून्य.. रह गया कुछ प्रतिभास
यह कैसा विचित्र दिवस
है..घोर तमाच्छन्न है गमथ
क्यों मिला विराग
प्रेम-सरि में तुम्हारी क्यों हुआ विपथ
किया था अतीव प्रेम
जीवन से किंतु रहा वह उदासीन
इससे पूर्व था
पूर्ण-रिक्त मैं,अब
हुआ पुनः मैं दीन-हीन।
है ज्ञात मुझे,ऊषा है एक तृषित नीलाम्बरी खगिनी
तथापि क्यों मैं गा
रहा हूँ अनवरत प्रकाश की गीत- रागिनी?
-0-
1-ओ मेरी प्यारी गुड़िया- रश्मि विभा त्रिपाठी
दीप एक दुआ का
इस दिन के इंतजार में
मैं हर बार रही हूँ
आओ मेरे पास
मैं तुम्हें पुकार रही हूँ
प्रेम से बैठी
कबसे सँवार रही हूँ
तुम्हारे लिए एक तोहफा
तुम्हारे जन्मदिन पर
तुम्हारे लिए है
मेरे आशीष की पुड़िया
रख लो
मुट्ठी में बन्द करके
ओ! मेरी प्यारी गुड़िया
मैं चुपके- से
अपनी उम्र के
दिन- महीने- साल
तुम पर वार रही हूँ
तुम जुग-जुग जियो
अपराजिता रहो
दुनिया की फिक्र छोड़ो
अपनी धुन में बहो
माँ के सपनों को लेके
तुम क्षितिज तक जाओ
पापा की उम्मीदों से
तुम अपना एक आसमान बनाओ
मैं तुम्हारे रास्ते के काँटे
अपने आँचल से बुहार रही हूँ
तुम बिन रुके
चलती रहो अपने लक्ष्य पर
तुम्हें बनाना है
औरों के लिए
एक मील का पत्थर
दोस्त बुरे या भले
कोई खुश हो या जले
तुम न देखो
मैं हर पल
दुआ के दीप से
तुम्हारी नजर उतार रही हूँ
तुम्हारे हाथ में हो
कामयाबी की रोशर्स
तुम्हारे कदमों में हो अर्श
तुम्हारे सामने आई
हर चुनौती को
आगे बढ़कर
मैं ललकार रही हूँ
तुम्हारे सुख के लिए
हर त्याग को तैयार रही हूँ
दीप एक दुआ का
उजियार रही हूँ।
-0-
2-दुआ का पौधा- रश्मि विभा त्रिपाठी
मेरे आगे
तनकर खड़ा था
क्या करती
पाँव छूने को चली
दुख मुझसे बड़ा था
अचानक
उसकी आँखों में
उतर आई खीज बड़ी
पल में टूटी अकड़
भीतर तक जल-भुन गया
और लौटना पड़ा
उसे
मुँह की खाए
अपनी हार से चिड़चिड़ाए
आदमी की तरह
करते हुए बड़-बड़, बड़-बड़
सुनो
उसने देख लिया
कि
तुमने जो रोपा था
द्वार पर
दुआ का पौधा
उसने अब कसकर पकड़ ली है जड़।
3- इस धरती
पर
इस धरती पर
लोग
बेवजह, बिना बात के
बगैर सोचे समझे
लड़ रहे हैं
हाल में हुए युद्ध का
उद्देश्य
मुझे अब मालूम हुआ
जब सब अपने-अपने घरों की ओर
विजयी होकर बढ़ रहे हैं
और मेरे घर की बगल में रहने वाली
एक छोटी- सी बच्ची
संजय- सा
कर रही है गली में वर्णन
विस्मयकारी
धृतराष्ट्र- सी सभी की सोच सारी
सोचा-
लोग मानवता के
कितने अच्छे प्रतिमान गढ़ रहे हैं
जब मैंने
बच्ची को ये बोलते सुना-
दयाराम का कुत्ता
उसके पड़ोसी शांतिस्वरूप पर
अभी कुछ देर पहले ही
भौंक पड़ा था
उसकी बड़ी बेइज्जती हो गई
अब इसी बात पर
दयाराम के ऊपर तड़ातड़ जूते पड़ रहे हैं।
-0-
1 -प्रीति अग्रवाल
क्षणिकाएँ
1.
ज़र्रा
हूँ
ख़ाक
में मिलकर
खुश
हूँ,
आफ़ताब
बनाकर
मुझे, अकेला न
करो।
2.
एक
दूजे की मंज़िल
हम
दोनों ही हैं,
सफर
खूबसूरत
यूँ
हीं नहीं...!
3.
मैं
दर्द की पोटली
छुपाती
फिरूँ,
कौन
हो तुम
तुम, सब टोहते
हो,
कौन
हो तुम
तुम, गिरह खोलते
हो।
4.
माना
हुस्न
फूलों का
दिलकश
है
अज़ीम
है,
मुझे
कुछ और
जीनों
दो,
मुझे
दूब
ही रहने दो...!
5.
ऐ
हवा
इक
सन्देशा
मेरा
भी लेजा
उसी
तरफ होकर
तू
है गुज़रती,
कहना
कि साँस चलती है
यूँ
तो हूँ ज़िंदा,
मगर
ज़िंदगी है
उसी
ओर बसती।
6.
आँसू,
अपनी
कहानी
लिखने
पर हैं आमादा,
परेशान
है मगर
कि
धुली
जा रही है।
7.
बानगी
इश्क की
जब
इबादत
हो
गयी,
तन, मन
घुलता
रहा,
और
धुआँ
मैं
हो गई... !
8.
जी
रही हूँ मैं
बेखौफ
बेधड़क,
जी
रहे हो तुम
बेखौफ
बेधड़क,
उसी
महफूज़
पते पर-
एक
दूसरे का दिल!
9.
नेह
की
बरसात
में
मैं
घुलती चली गयी,
केवल
तुम
ही तुम रहे
मैं
जाने कहाँ गयी!
10.
सोचती
हूँ
जिसे
सह गई,
उसे
कह देती
तो
क्या होता...
जवाब-
नीला
आकाश
उन्मुक्त
उड़ान
क्षितिज
के पार
नईं
मंज़िलें
नया
जहान!
-0-
2-कपिल कुमार
1
सिन्धु
के तट
उपद्रष्टा
रहे
युद्धों
की विभीषिका के
रणभेरी
की नादों से
भयभीत
हुआ होगा
हृदय
किस-किसका?
युद्धों
के परिणाम
दर्ज
करती
तटों
पर रुक-रूक कर
सिन्धु
दशकों तक
आलेखों
में,
कभी
किसी
ने नही पढ़ा,
इनको
पढ़े बिना
लग
जाते है,
नए
युद्ध की तैयारी में।
2
युद्धों
की पृष्ठभूमि
कौन
लिखता है?
हृदय
पर
पत्थर
रखकर।
3
उतारे
हैं
प्रेम
के
सभी
प्रारूप
हृदय-पटल
पर,
ध्यान
से सुनते
सिन्धु
के खामोश तट
तुम्हारी
बातें,
इसके
विपरीत भी।
4
हे
बुद्ध!!
"अहिंसा के प्रवर्तक"
क्या
तुमने कभी सोचा?
यशोधरा
ने लड़े
मन
के विरुद्ध
कितने
युद्ध?
-0-