मंथन
शशि पाधा 
अपना-अपना भाग्य लिखाए
धरती पर हैं आते लोग
विधना जो भी संग बँधाए
गठरी भर- भर लाते लोग।
किस स्याही से खींची उसने
हाथों की अनमिट रेखाएँ
वेद_ पुराण पढ़े हर कोई
भाग्य नहीं पढ़ पाते लोग।
बीते कल की पीड़ा बाँधे
‘आज’ तो जी भर जी न पाए
भावी की चिंता में डूबे
जीवन-स्वर्ण लुटाते लोग।
रिश्तों 
के इस  मोहजाल में
मन पंछी व्याकुल- सा रहता
जग जंजाल छोड़के सारा 
मुक्त नहीं हो पाते लोग।
कौन है अपना, कौन पराया
किसने कैसी रीत निभाई
मन तराजू मन ही पलड़े  
तोल- मोल कर जाते लोग।
सुंदर मन सुंदर यह जगति
सुंदर सृष्टि रूप-अनूप
मन दर्पण हो जिसका जैसा
वैसा चित्र   बनाते   लोग।
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