मंथन
शशि पाधा
अपना-अपना भाग्य लिखाए
धरती पर हैं आते लोग
विधना जो भी संग बँधाए
गठरी भर- भर लाते लोग।
किस स्याही से खींची उसने
हाथों की अनमिट रेखाएँ
वेद_ पुराण पढ़े हर कोई
भाग्य नहीं पढ़ पाते लोग।
बीते कल की पीड़ा बाँधे
‘आज’ तो जी भर जी न पाए
भावी की चिंता में डूबे
जीवन-स्वर्ण लुटाते लोग।
रिश्तों
के इस मोहजाल में
मन पंछी व्याकुल- सा रहता
जग जंजाल छोड़के सारा
मुक्त नहीं हो पाते लोग।
कौन है अपना, कौन पराया
किसने कैसी रीत निभाई
मन तराजू मन ही पलड़े
तोल- मोल कर जाते लोग।
सुंदर मन सुंदर यह जगति
सुंदर सृष्टि रूप-अनूप
मन दर्पण हो जिसका जैसा
वैसा चित्र बनाते लोग।
-0-
Email: shashipadha@gmail.com