पथ के साथी

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Monday, September 15, 2014

वे फिर से आएँगे?



मेरे टूटे मकान में
डॉकविता भट्ट  

क्या मेरे टूटे मकान में वो फिर आएँगे ?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे
वे आए और आकर चले गए
मेरे मन में अपनी याद जगाकर चले गए
जब मैंने उन्हें विदा किया तो उनकी याद आती थी
उन्हें छोड़कर जब आई मैं वापस
अपने मिट्टी और पठालियों के
 बरसात में रिसते–टपकते मकान में
तो उनकी याद सताती थी !
किचन–बाथरूम न कोई सुविधा जिसमें
टीवी, फ्रिज, कम्प्यूटर न ही मोबाइल
चारों ओर घने पेड़ थे देवदार–अँयार के
और मिट्टी पत्थर के उस घर में
वह कुछ न था जो उनकी चाहत थी
पर मेरे उसी घर में सुख–शांति थे
जहाँ मैं आती थी खेतों से थककर
खाती थी रोटी कोदे की–
घी लगाकर  हरी सब्जी के साथ
दूध पीती थी जी भकर और
फिर सोती थी गहरी नींदें लेकर
जबकि मेरे पास नहीं थे बिस्तर
मैंने सोचा- शायद वो मुझे छोड़
अपने घर चले गए
कुछ दिन बाद पता चला कि
चार दिन सुविधाओं में कहीं और रुक गए
मैंने सोचा -अब मैंने उनको भुला दिया
पर उनकी यादों ने मुझको रुला दिया
अब सोचती हूँ यही रह–रह कर कि
क्या..........................................?
मेरे टूटे मकान में क्या वे फिर से आएँगे?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे ।
शब्दार्थ– पठालियों – पत्थर की स्लेटें, कोदे– मंडुआ एक पहाड़ी अनाज
(दर्शनशास्त्र विभाग ,हेगढ़वाल विश्वविद्यालय ,श्रीनगर (गढ़वाल) उत्तराखण्ड
-0-
दोहे     
1- दोहे- डॉ (श्री मती) क्रान्ति कुमार   
( पूर्व प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय , पूणे)
                     
         वन अब कहे पुकार के, सुन नर मेरी बात ।    
             भस्मासुर बन कर रहा , अपना ,सबका नाश ॥

             तरु को कटते देख के, पंछी हुए उदास।
               पेड़ सभी तो कट गए,अब हो कहाँ निवास ॥

             वन प्रांतर मे फिर रहे , खग गण खोजें वास।
               कंक्रीट के इस वन मे, छोड़ चला मन आस ॥

             गिरि सब अब समतल हुए, वन हो गए विलीन।
              ऊँचे- ऊँचे महल अब,  हुए वहाँ आसीन। ॥
   
              व्याकुल खग दर-दर फिरें, ढूँढ़ें नूतन ठौर ।      
               अब जाएँ किस लोक मे ,शांति मिले किस ओर ॥
                        -0-
          
2-पुष्पा मेहरा        
1
 वर्ण-वर्ण  मिलकर रचें,उसको हिन्दी जान ।
 इसकी महिमा जो गुने, होवे वही सुजान ।।
2
माथे पर  बिन्दी धरे, सोहे रूप - अनूप । 
सलमा मोती धार के, खिले रूप की धूप ।।
3
 भावों की माला पहन, शब्द बराती आय 
 अलंकार सेंदुर भरे, दुलहन हिन्दी भाय ।।
4
 पर्व नहीं हिन्दी दिवस, जिसको लिया मनाय ।
 जा दिन सबके मन बसे, पंख लगे उड़ि जाय ।।
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Thursday, August 14, 2014

परी नदी

1-परी नदी
-डॉ०क्रांति कुमार, पूर्व प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय

कल- कल, छल छल का निनाद कर
हहराती कहाँ चली प्रिये
श्वेत शुभ्र फेनि वस्त्रों में
इठलाती ले चली हिये ।

पल भर रुक जा ,दो बातें कर
इतनी भी है क्या जल्दी
मतवाली बन होश न खोना
सुध तो ले जन जीवन की।

तट पर बसे नगर अनेकों
हरे खेत और देवालय
सिंचित कर औ प्यास बुझा कर
मधुमय कर दे जन जीवन।

माना कि गति ही है जीवन
पर इतनी भी क्या जल्दी
पथ के पथिकों से मिलती जा
अरी , रुको ओ परी नदी।
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2-कृष्णा वर्मा
1-अभिलाषा 

जब-जब चाहा इस जीवन से
इसने सब भरपूर दिया
नहीं शिकायत कोई रब से
गले-गले सुख पूर दिया।

यूँ तो सदा सरल सुगम से
जीवन की की थी अभिलाषा
करुणाकर थी विधना मुझपर
पूर्ण हुईं मनचाही आशा।

प्रीत बनी प्रिय की मेरी शक्ति
धर संसार हुआ मेरी भक्ति
सहज फूल दो खिले सहन में
हर्षित मन ज्यों चाँद गगन में।

नहीं नैराश्य का संग अपनाया
संयम ही मुझे पग-पग भाया
दिन सुन्दर बने सांझ कुनकुनी
अपनों संग रही खुशी ठुमकती।

चली निरंतर पाने गंतव्य
मंज़िल पा गए लगभग मंतव्य
प्रिय का सुख सुत श्रवण मिले हैं
नहीं जीवन से मुझको गिले हैं।

बेटी की भी कमी रही ना
जब बेटी सी बहू घर आई
बेटे के बेटे ने जन्म ले
रिश्तों में मृदु गाँठ लगाई


मिले-जुले अनुभव जिए सारे
ढली उम्र के सुखद सहारे
जीवन अतल भरा यादों से
रही शिष्ट निज के वादों से।

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2-आँखों का उलाहना

देती हैं मेरी आँखें
मुझे नित्य उलाहना
बे वक्त जगाने का
यह तुमने क्या ठाना
चर्राया यह क्या तुम्हें
कविताओं का शौक
लगा कहाँ से लिखने का
यह संक्रामक रोग
आँखों को शिकायत है
मेरी कविताई से
उल्लू सा जगा रखते
भावों की लिखाई में
ख़्यालों के शिकंजे में
जब-तब घिर जाते हो
बेचैन हृदय होता
सज़ा हमें सुनाते हो
दिल बंजर धरती- सा
ना पानी ना माटी
जाने दुख-सुख की कैसे
चित्तवृत्ति उग आती
घंटों तकें शून्य में हम
नभ की गहराई में
इक वाक्य बनाने को
शब्दों की जुटाई में
सोचों का सफर लम्बा
कर-कर हम थक जातीं
दरबान- सी पलकें भी
झपकन को तरस जातीं
कविताओं का घुन कुतरे
नींदों के किनारों को
बरबस तुम बाँधा करो
बेबाक विचारों को
यह भाव निगोड़े क्या 
मकड़ी के भतीजे है
बिन ताने-बाने के
कविता बुन लेते है
दिन-रात मगजमारी
इक कवि कहलाने को
शब्दों को उमेठते हो
कुछ तालियाँ पाने को
जब तक कलम चले
हमें संग जगाते हो
भावों के प्रवाहों पे
क्यूँ ना बाँध लगाते हो
मुई यह कविताएँ  क्यूँ
फिरें दिन में आवारा
जब कौली भरे रजनी
खटकातीं आ मन द्वारा।
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3- रेखा रोहतगी
 सतरंगी  सपने

सतरंगी  सपने
धुआँ - धुआँ  से हुए रिश्ते
बदगुमाँ हुए  लोग
जिंदगी भर हम
अपनेपन के लिए
तरसते रहे
गले में हुई रस्सी
हाथों की बनी हथकड़ी
जिन्हें जिन्दगी भर हम
गहने समझ
सजते-सँवरते रहे
राख-सा  लिबास
मटमैला आँचल  पहन
जिन्दगी भर हम
सतरंगी सपने
बुनते रहे
काँटों की चुभन
अँगारों की जलन  लिये
एक आसान जिन्दगी के लिए
जिन्दगी भर हम
पते रहे
-0-