दो ग़ज़लें : डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
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चोट पर चोट देकर रुलाया गया
जब न रोए तो पत्थर बताया गया ।
हिचकियाँ कह रही हैं कि तुमसे हमें
अब तलक भी न साथी ! भुलाया गया ।
लम्हे तर को तरसती रही ज़िंदगी
वक़्ते रूखसत पे दरिया बहाया गया ।
ऐसे छोड़ा कि ताज़िंदगी चाहकर
फिर न आवाज़ देकर बुलाया गया।
आदतें इस क़दर पक गईं देखिए
आँख रोने लगीं जब हँसाया गया ।
यूँ निखर आई मैं ओ मेरे संगज़र !
मुझको इतनी दफ़ा आज़माया गया।
कहाँ मुमकिन हमेशा रोक कर रखना बहारों को
बनाया बाग़ में रब ने गुलों के संग
ख़ारों को ।
दबी रहने दे ऐसे छेड़ मत चिनगारियाँ हमदम
कहीं ये बात हो जाए न भड़काना शरारों
को ।
किसी ने चाँद टाँका है जबीं पे आज
देखो तो
निगाहें छू न पाईं थीं अभी मेरी सितारों को ।
तुम्हें सँभाल कर रखने
हैं रिश्ते ,नींव
,दीवारें
बड़ा मुश्किल है फिर भरना बहुत
गहरी दरारों को ।
दिया था इल्म उसने तो बसर हो ज़िंदगी
कैसे
समझ पाए न हम देखो खुदी उसके इशारों
को ।
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