पथ के साथी

Saturday, November 18, 2017

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दो ग़ज़लें : डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
1
चोट पर चोट देकर रुलाया गया
जब न रोए तो पत्थर बताया गया ।

हिचकियाँ कह रही हैं कि तुमसे हमें
अब तलक भी न साथी ! भुलाया गया ।

लम्हे तर को तरसती रही ज़िंदगी
वक़्ते रूखसत पे दरिया बहाया गया 

ऐसे छोड़ा कि ताज़िंदगी चाहकर
फिर न आवाज़ देकर बुलाया गया।

आदतें इस क़दर पक गईं देखिए
आँख रोने लगीं जब हँसाया गया ।

यूँ निखर आई मैं ओ मेरे संगज़र !
मुझको इतनी दफ़ा आज़माया गया।
 2
कहाँ मुमकिन हमेशा रोक कर रखना बहारों को
बनाया बाग़ में रब ने गुलों के संग ख़ारों को ।

दबी रहने दे ऐसे छेड़ मत चिनगारियाँ हमदम
कहीं ये बात हो जाए न भड़काना शरारों को

किसी ने चाँद टाँका है जबीं पे आज देखो तो
निगाहें छू न पाईं थीं अभी मेरी सितारों को 
             
तुम्हें  सँभाल कर रखने हैं रिश्ते ,नींव ,दीवारें 

बड़ा मुश्किल है फिर भरना बहुत गहरी दरारों को ।

दिया था इल्म उसने तो बसर हो ज़िंदगी कैसे
समझ पाए न हम देखो खुदी उसके इशारों को । 

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