1-अनुबन्ध
डॉ कविता भट्ट (हे न ब
गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड}
रीत-रस्म-आडम्बर होते, जग के ये झूठे प्रतिबन्ध
कौन लता किस तरु से
लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
बदली न मचलती ,कभी न घुमड़ती
आँचल चूम चंचल हवा न उड़ती
भँवरे कली से नहीं यों बहकते
तितली मचलती ,न पंछी चहकते
कब, हाथ
मिलाना किससे? व्यापारों से होते सम्बन्ध
कौन लता किस तरु से
लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
झरने न बहते, नदियों पे पहरे
सीपी, न मोती सिन्धु नहीं
गहरे
चाँदनी विलुप्त
न तारे निकलते
यही चाँद- सूरज उगते न ढलते
मुखौटे वाले दिलकश चेहरे, उड़ी है नकली
सुगन्ध
कौन लता किस तरु से
लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
प्रफुल्ल रहना उन्मुक्त बहना है
जीवन कहता- जीवन्त रहना है
दिल की आवाज़ को यों न मिटाएँ
बिन स्वार्थ कुछ पल संग में बिताएँ
सहजीवी बनें प्रेम बाँटे, छोड़ें सब झूठा
आनन्द
कौन लता किस तरु से
लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
-0-(हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड)
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2-महातपा [प्रमाणिका छन्द]
ज्योत्स्ना
प्रदीप
सिया बड़ी उदास है ।
न आस है न श्वास है।।
अशोक के तले रही ।
व्यथा कहाँ कभी कही।।
सभी लगे विशाल थे ।
बड़े कई सवाल थे ।।
पिया-
पिया पुकार के।
सिया थकी न हार के।।
पिया ,पिता न साथ रे ।
कहाँ अजेय नाथ रे ।।
धरा सुता जया बड़ी ।
समेट पीर की घड़ी ।।
सहें कहे न वेदना ।
हिया जिया न भेदना ।
पिया-
पिया सदा जपा।
सुकोमला महातपा ।।
रहे सभी डरे -डरे ।
सदेह भी मरे-
मरे ।।
रक्षा करे सम्मान की ।
बड़ी महान जानकी ।।
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