पथ के साथी

Tuesday, March 8, 2011

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस



थकाने वाला सफ़र
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

8 मार्च अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस विश्व भर में मनाया जा रहा है ।महिलाएँ अबला हैं यह धारणा बाहरी तौर पर देखें तो टूट चुकी है । ज्ञान विज्ञान ,खेल का मैदान ,राजनीति का घमासान साहित्य,कला ,संगीत, समाज-सुधार,शिक्षा,व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है ।यह सब एक दिन में नही हो गया ,वरन् बरसों के संघर्षों का परिणाम है । लेकिन इन सबके ऊपर एक भोगवादी एवं ढोंगी पीढ़ी हावी है । रूस ,चीन, अमरीका में आज तक किसी महिला को राष्ट्रपति बनने का अवसर नहीं मिल पाया है । भारत इस मायने में सबसे आगे है ।ये ऐसी बाते हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं।इसी के साथ ऐसा भी बहुत कुछ है ,जो हमें बेचैन कर सकता है।
जब शादी की बात आती है तो इस सभ्य समाज का मूर्खतम लड़का भी सुघड़ ,सुन्दर, सुशिक्षित लड़की से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है ।उस की क़ीमत लाखों में आँकी जाने लगती है ।तमाम ऊँची शिक्षा के बावज़ूद वह बिकने के लिए तैयार हो जाता है।जितना बड़ा पद ;उतनी ऊँची बोली। इसे कौन प्रगति का नाम देगा? इस बाज़ार में बहुत सारे आदर्शवादी अपने खोखले आदर्शों को लालच के वशीभूत होकर चर जाते हैं ।ज़रा अवसर मिलते ही भूखे बाघ की तरह नारी का शोषण करने वाले क्या कर रहें  हैं? गहराई तक जाएँ तो दिल दहलाने वाले तथ्य प्रकाश में आएँगे । कितनी ही नारियों की हूक लाज-शर्म के पर्दे में घुटकर दम तोड़ देती है ।घर-परिवार वाले भी उसका शोषण करने में पीछे नहीं रहते ।इस विषम एवं विडम्बना-भरी परिस्थिति में वह कहाँ जाए ? किसके आँचल में छुपकर अपने आँसू पोंछे ?कामकाजी महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है ।उसे रोज अवांछ्नीय अधिकारियों की नीच हरक़तों का शिकार होना पड़ता है ।
मंचों पर स्त्री की आज़ादी की वकालत करने वाले अपने घरों में कुछ और ही करते नज़र आएँगे ।सुरक्षा को लेकर औरत हमेशा डरी हुई ही मिलेगी ।संभवत स्त्री का बदलता हुआ भोगवादी रूप(नारी की आज़ादी का शायद यही अर्थ हमने समझ लिया है ।) ही इसके लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार है ।आज़ादी का सही अर्थ है -सुरक्षा एवं सम्मान के साथ काम करने और जीने की आज़ादी,अपनी उन्नति के लिए आगे बढ़ने की आज़ादी ,अपने विचारों को प्रकट करने की आज़ादी।जिस घर और समाज में नारी दुखी रहेगी ;वह सुख की कल्पना करे तो आश्चर्य ही होगा ।
कोई क्रान्ति हो , दंगा -फ़िसाद हो, दफ़्तर की तानाशाही हो , घर की रूढ़िवादी सोच या संस्कृति हो ,  ढोंगी साधु-सन्तों के मठ या अखाड़े हों , मन्दिरों की देवदासी परम्परा हो ;सबका पहला निशाना नारी ही बनती है । साधुवेश  के छली  आवरण में छिपे कामुक  भेड़ियों का  सबसे पहला निवाला असहाय नारी ही बनती है । हम हैं कि अपनी  छद्म संस्कृति का गुणगान करते नहीं थकते हैं । उसकी भावनाओं को न के बराबर महत्त्व दिया जाता है । वह हर तरह के शिकारी का आसान शिकार बन जाती है ।उससे हर प्रकार का खिलवाड़ किया जाता है ।
कुछ अप्रिय घटित हो जाए तो उसे या तो चुप रहना पड़ता है या कदम-कदम पर अपमान का घूँट  पीना पड़ता है  । न्याय की पगडण्डियाँ भी इतनी टेढ़ी-मेढ़ी हैं कि वह उनसे गुज़रकर कभी कुछ नहीं पा सकती । अफ़सोस तो तब होता है जब जनप्रतिनिधि भी  नारी को उसके अधिकार देने के नाम पर तरह-तरह के पेंच खड़े कर देते हैं ताकि कानून बनाने वाले उसी में उलझे रहें । आखिर इन सामन्ती सोच वालों का इलाज कौन करेगा ?
जब तक नारी को हमारे समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता , तब तक हमारी सारी प्रगति , सारे विकास केवल छलावा हैं , इससे ज़्यादा और कुछ नहीं ।
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