1-दोहे
1-सुशीला शिवराण
1
सर्व-धर्म समभाव ही, भारत का पैग़ाम ।
सबका मालिक एक है, भले अलग हैं नाम ।।
2
गीता के इस सार की, देती सीख क़ुरान ।
प्रेम करो इंसान से, जीसस का फ़रमान ।।
3
धरम-करम का नाम ले, करते पाप तमाम ।
ख़ुदा करेगा ख़ैर ना माफ़ करेंगे राम ।।
4
धू-धू कर बच्चे जलें, रूह गई हैं काँप ।
देख ज़हर इंसान का, दहशत में हैं साँप ।।
5
सहमी-सहमी -सी जगे, उन्मन- सी अब भोर।
चीख हुईं किलकारियाँ, मानव हिंसक ढोर ॥
6
अंधी गलियाँ हैं यहाँ, बहरी हैं दीवार ।
नुचती हैं नित बेटियाँ, खुलते नहीं किवार ॥
7
नादां मन जब पाल ले, आस्तीन में साँप ।
तन-मन की तो बात क्या, रूह जाय है काँप॥
8
रधिया तन को बेचती, कैसा लाई भाग ।
लज्जा का मंदिर जला, लगी भूख की आग ॥
9
छोटी-सी यह ज़िंदगी, क्यों नफ़रत-तक़रार ।
मुहब्बतों की बात से, चमन रहे गुलज़ार ।।
10
जो कह लेता मौन है, कब कह पाते शब्द ।
पढ़ लें भाषा मौन की, हम होकर नि:शब्द ॥
11
रजनी का काजल चुरा, रवि प्राची के द्वार।
लो किरणों की ओढ़नी, खोलो प्रिय किवार ॥
-0-
1
सर्व-धर्म समभाव ही, भारत का पैग़ाम ।
सबका मालिक एक है, भले अलग हैं नाम ।।
2
गीता के इस सार की, देती सीख क़ुरान ।
प्रेम करो इंसान से, जीसस का फ़रमान ।।
3
धरम-करम का नाम ले, करते पाप तमाम ।
ख़ुदा करेगा ख़ैर ना माफ़ करेंगे राम ।।
4
धू-धू कर बच्चे जलें, रूह गई हैं काँप ।
देख ज़हर इंसान का, दहशत में हैं साँप ।।
5
सहमी-सहमी -सी जगे, उन्मन- सी अब भोर।
चीख हुईं किलकारियाँ, मानव हिंसक ढोर ॥
6
अंधी गलियाँ हैं यहाँ, बहरी हैं दीवार ।
नुचती हैं नित बेटियाँ, खुलते नहीं किवार ॥
7
नादां मन जब पाल ले, आस्तीन में साँप ।
तन-मन की तो बात क्या, रूह जाय है काँप॥
8
रधिया तन को बेचती, कैसा लाई भाग ।
लज्जा का मंदिर जला, लगी भूख की आग ॥
9
छोटी-सी यह ज़िंदगी, क्यों नफ़रत-तक़रार ।
मुहब्बतों की बात से, चमन रहे गुलज़ार ।।
10
जो कह लेता मौन है, कब कह पाते शब्द ।
पढ़ लें भाषा मौन की, हम होकर नि:शब्द ॥
11
रजनी का काजल चुरा, रवि प्राची के द्वार।
लो किरणों की ओढ़नी, खोलो प्रिय किवार ॥
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2-मंजूषा ‘मन’
1
सावन में ये क्या हुआ,
लगी
जिया में आग।
जिस दिन साजन आएँगे,
तब
जागेंगे भाग।
2
कोरे कागज़ पर चले,
लिखने
मन की बात।
मन पीड़ा के संग थी,
अँसुअन
की बारात।
3
बारिस की इक बूँद ने,
मनवा
दिया जगाय।
छींटे कुछ मन पे पड़े,
सारा
ही जग भाय।
4
वाणी भी मीठी नहीं,
कहें
न मीठे बोल।
कड़वे इस संसार में,
मनवा
तू रस घोल।
5
ये होली, दीपावली, खुशियों के त्योहार।
साजन तुम परदेस से,
आ
जाना इस बार।
6
कहते जग से हम फिरे,
उसको
हमसे प्रीत।
सच आया जब सामने,
गाएँ
दुख के गीत।
7
बरगद आँगन में उगा,
देता
सबको छाँव।
शीतलता है बाँटता,
सबसे
प्यारी ठाँव।
8
माथे क्यों मेरे लिखा,
सहना
अत्याचार।
अर्पण जीवन कर दिया,
मिला
नहीं पर प्यार।
-0-
2-कविताएँ
1-डॉ०पूर्णिमा राय
लेटी रहती है बिस्तर पर अब बच्चों की नानी है
आज सुनाती हूँ मैं तुमको ये दुख भरी कहानी है।।
एक समय था जब वह घर में, अपना हुक्म चलाती थी
डर कर सहमी रहती हरपल यह राजा की रानी है।।
हँस-हँस के बातें थी करती रोते सभी हँसाती थी
मुख-मण्डल पर दिखे उदासी घर में वो बेगानी है।।
लाज-शर्म थे उसके गहने मर्यादा में बँधी रही।
जीवन अर्पित करके कहती धड़कन आनी-जानी है।।
आहें सुनकर नानी माँ की आँखों से हैं अश्क बहें
पोंछ दे अश्रु 'पूर्णिमा' सारे नानी संग रवानी है।।
-0-
2- सुशीला शिवराण
1-आँसू और औरतें
सिखाती
रही पोथियाँ
सीखते रहे ज़माने
आँसू औरतों का बड़ा हथियार हैं
शायद तब
जब हुआ करते थे सीधे-सादे लोग
रखा करते थे नाज़ुक दिल-ज़ज़्बात
शायद तब
आँसुओं से बन जाती थी बात
सीखते रहे ज़माने
आँसू औरतों का बड़ा हथियार हैं
शायद तब
जब हुआ करते थे सीधे-सादे लोग
रखा करते थे नाज़ुक दिल-ज़ज़्बात
शायद तब
आँसुओं से बन जाती थी बात
अब
उल्टी बहती हवा में
औरत के आँसू
कर देते हैं मुनादी
उसके दरकने की आख़िरी हद की
दरकती ईंटों को
गिरने से पहले ही
लूट लेना चाहते हैं
फ़िरकापरस्त नक़ाबपोश
दरकती दीवार समझती है
पा गई है सहारा
नहीं गिरने देंगे ये हाथ
नहीं पहचान पाती
हमदर्दी के दस्ताने पहन
बस ताक़ में हैं
हवस के हाथ
रौंद डालेंगे उसका वज़ूद
मिटा डालेंगे ज़मीं से
उसकी निशानी तक
उल्टी बहती हवा में
औरत के आँसू
कर देते हैं मुनादी
उसके दरकने की आख़िरी हद की
दरकती ईंटों को
गिरने से पहले ही
लूट लेना चाहते हैं
फ़िरकापरस्त नक़ाबपोश
दरकती दीवार समझती है
पा गई है सहारा
नहीं गिरने देंगे ये हाथ
नहीं पहचान पाती
हमदर्दी के दस्ताने पहन
बस ताक़ में हैं
हवस के हाथ
रौंद डालेंगे उसका वज़ूद
मिटा डालेंगे ज़मीं से
उसकी निशानी तक
वक़्त
बदला
दुनिया बदली
नहीं बदली तो औरत
नहीं बदला तो उसका नामुराद दिल
यह हक़ीक़त
बख़ूबी जानते हैं दरिंदे
लगा निरीह भेड़ का मुखौटा
घाघ भेड़िए
रोते हैं ज़ार-ज़ार
पिघला ही देते हैं
औरत का मोम-सा दिल
पिघलती औरत
पोंछती है दर्द के आँसू
छिड़कती है प्यार का अमृत जल
बस उसी पल
उतार फ़ेंकता है भूखा भेड़िया
निरीह भेड़ का मुखौटा
नोच लेना चाहता है उसका जिस्म
बिफ़री-सी औरत
काट डालना चाहती है
वो दगाबाज़ हाथ
जो भिक्षुक बनकर आए थे
रावण होने पर उतारू हैं
दुनिया बदली
नहीं बदली तो औरत
नहीं बदला तो उसका नामुराद दिल
यह हक़ीक़त
बख़ूबी जानते हैं दरिंदे
लगा निरीह भेड़ का मुखौटा
घाघ भेड़िए
रोते हैं ज़ार-ज़ार
पिघला ही देते हैं
औरत का मोम-सा दिल
पिघलती औरत
पोंछती है दर्द के आँसू
छिड़कती है प्यार का अमृत जल
बस उसी पल
उतार फ़ेंकता है भूखा भेड़िया
निरीह भेड़ का मुखौटा
नोच लेना चाहता है उसका जिस्म
बिफ़री-सी औरत
काट डालना चाहती है
वो दगाबाज़ हाथ
जो भिक्षुक बनकर आए थे
रावण होने पर उतारू हैं
-0-
2-फूँक
डालो
हिंसक बलात्कार
गैंग-रेप का शिकार
बच्चियाँ-जवान-बूढ़ी औरतें
पूछती हैं तुमसे चीख-चीख कर
क्यों सदियों से फूँकते रहे रावण
जिसकी क़ैद में भी महफ़ूज़ रही
असहाय सती सीता की लाज
क्यों नहीं फूँकते दुःशासनों को
जो निर्वस्त्र कर देना चाहते हैं
सरे आम
हर संबंध, हर मर्यादा को
माँ-सी भाभी, कुल की लाज को
हिंसक बलात्कार
गैंग-रेप का शिकार
बच्चियाँ-जवान-बूढ़ी औरतें
पूछती हैं तुमसे चीख-चीख कर
क्यों सदियों से फूँकते रहे रावण
जिसकी क़ैद में भी महफ़ूज़ रही
असहाय सती सीता की लाज
क्यों नहीं फूँकते दुःशासनों को
जो निर्वस्त्र कर देना चाहते हैं
सरे आम
हर संबंध, हर मर्यादा को
माँ-सी भाभी, कुल की लाज को
बदहवास-सा
लहूलुहान वक़्त
चीख रहा है
अँधेरी गलियों
सुनसान खेतों
वीरान सड़कों से
छोड़ो फूँकना रावण
फूँक डालो दुःशासनों को
बच्चियों- औरतों की ओर
उठती वहशी नज़रों
बढ़ते हवस के हाथों को
हाँ फूँक डालो
मगर पुतलों को नहीं
बर्बर बलात्कारियों को
अस्मत को नोचते-लूटते
दरिंदे भेड़ियों को
अब; फूँक डालो
लहूलुहान वक़्त
चीख रहा है
अँधेरी गलियों
सुनसान खेतों
वीरान सड़कों से
छोड़ो फूँकना रावण
फूँक डालो दुःशासनों को
बच्चियों- औरतों की ओर
उठती वहशी नज़रों
बढ़ते हवस के हाथों को
हाँ फूँक डालो
मगर पुतलों को नहीं
बर्बर बलात्कारियों को
अस्मत को नोचते-लूटते
दरिंदे भेड़ियों को
अब; फूँक डालो
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