रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
साहित्य में दो तरह के लोग हैं- एक वे, जो अपनी अनुभूतियों और विचारों को दूसरों तक पहुँचाना चाहते हैं
। यही उनका प्रेय है , किसी को पसन्द आ जाए तो यही श्रेय है ।
दूसरे वे लोग , जो साहित्य को केवल सीढ़ी मानते हैं, यश की ,अर्थोपार्जन की , पुरस्कार
झटकने की , खुद को उठाने की ,दूसरों को गिराने की । इनका कोई
तथाकथित मित्र भी केवल उसी पल तक है , जब तक वह इनके लिए साधन
बन सकता है ।मैंने और डॉ भावना कुँअर ने जनवरी
2011 में चन्दन-मन हाइकु संग्रह का सम्पादित
किया । हमने तय किया था कि आर्थिक सहयोग न लेकर अच्छे रचनाकारों ( नए या पुराने)को सामने लाएँगे । इसी भाव को मन में रखकर
जनवरी 2012 में ताँका का प्रथम सम्पादित संग्रह भी निकाला
, जिसमें 29 रचनाकारों के 587 ताँका थे । वरिष्ठ या कनिष्ठ
का ध्यान न रखकर , जिसके जितने ताँका ( 6 से लेकर 36 तक) अच्छे लगे
, इस संग्रह में दिए गए । डॉ हरदीप सन्धु इसकी भूमिका 19 नवम्बर ,2011को लिख चुकी थी । कनाडा से कई बार फोन करने पर हमें डॉ मिथिलेश दीक्षित के ताँका
22 नवम्बर को उस समय मिले ,जब प्रूफ़ देखने
के बाद पुस्तक प्रेस
में जाने वाली थी । अब यह समझने की बात है कि 19 नवम्बर में भूमिका
लिखने वाला
22 नवम्बर को शामिल रचनाकार को कैसे जोड़ सकता है ? इससे पूर्व 13 नवम्बर -2011 को लखनऊ
में सरस्वती सुमन के मुक्तक विशेषांक ( अतिथि सम्पादक-जितेन्द्र जौहर)का लखनऊ में विमोचन हो रहा था
, उसी मंच पर डॉ दीक्षित का भी अपने हाइकु –केन्द्रित
कोई प्रायोजित कार्यक्रम था । मैंने फोन पर डॉ दीक्षित से कहा कि डॉ आनन्दसुमन सिंह
जी से कहकर पत्रिका का हाइकु विशेषांक निकालने का निवेदन कर लीजिए ।यही बात मैंने जितेन्द्र
जौहर को भी कह दी । श्री जौहर ने डॉ आनन्द सुमन सिंह जी के सामने जैसे ही यह प्रस्ताव
रखा
, उन्होंने उदारतापूर्वक
डॉ दीक्षित को यह कार्य सौंप दिया ।
जनवरी 2012 से रचनाएँ मँगवाई गई । जो लोग इन्टरनेट से
जुड़े थे , उनकी रचनाएँ डॉ दीक्षित को उनके मेल पर और प्रिण्ट
में डाक द्वारा भेजी जाती रही । हाइकु सम्बन्धी कुछ अंग्रेज़ी पुस्तको का मैटर भी भेजा
गया । सबके पते भी कभी एस एम एस करके कभी फोन करके नोट कराए । कुछ के फोन नम्बर भी
दिए । डॉ दीक्षित ने प्रकृति विषयक हाइकु का संग्रह निकालने की
योजना बनाई , वे भी भिजवाए गए । इसी बीच जुलाई 2012 में मैने , डॉ भावना कुँअर और डॉ हरदीप सन्धु ने विषय –केन्द्रित
‘ यादों के पाखी ( हाइकु-संग्रह)
में 48 रचनाकारों के 793 हाइकु शामिल किए गए ।पहले फ़्लैप पर तीसरे क्रम पर डॉ दीक्षित का हाइकु दिया
गया , जबकि इनसे रचनाकार्य / वय में वरिष्ठ
4 लोगों के नाम इनसे नीचे रखे गए, जिनमें मेरा
नाम भी था । अगस्त 2012 में हम तीनों द्वारा सम्पादित
21 कवियों के 326 सेदोका का संग्रह ‘अलसाई
चाँदनी’ भी आ गया । अप्रैल
2013 में 26 कवियों की 126 चोका कविताएँ ‘उजास साथ रखना’ के नाम से प्रकाशित हुईं । 2012-2013 तक
प्रकाशित सभी 4 संग्रहों में डॉ दीक्षित सहित भारत और भारत से बाहर के साथियों
की रचनाएँ थीं। इसी बीच रचना श्रीवास्तव द्वारा अवधी में अनूदित 34 लोगों 542 हाइकु ‘मन के
द्वार हज़ार’ के नाम से आए । इस बार केवल एक ही फ़्लैप पर 9 चुने
हुए हाइकु थे, जिनमें मेरा ( भूमिका लेखक)
और रचना श्रीवास्तव( अनुवादक) व डॉ दीक्षित का हाइकु देना सम्भव नहीं था।इसका उलाहना मुझे फोन पर दिया गया ।वरिष्ठ
हाइकुकार न होते हुए भी मुझे इनकी इस तरह की संकीर्णता-भरी सोच
पर आश्चर्य हुआ ।यह भी सच है कि इन्होंने उपर्युक्त संग्रहों के बारे में अच्छा-बुरा कभी एक शब्द भी नहीं लिखा।
हमने निर्लोभ रूप से परिचित –अपरिचित सभी रचनाकारों
को बिना किसी सहयोग के शामिल कर लिया ।डॉ सुमन जी द्वारा प्रस्तावित हाइकु
विशेषांक का काम इस बीच लम्बित ही रहा ।मैंने
कहा कि आप सामग्री भेज दीजिए तो उत्तर मिला कि जब प्रधान सम्पादक कहेंगे ,तभी
भेजूँगी ।सम्भवत: उनके मन में किसी के अनावश्यक हस्तक्षेप का खटका था ।मुझसे कहा
कि आप हिन्दी चेतना का हाइकु विशेषांक निकलवा दीजिए
। हिन्दी चेतना का अक्तुबर-दिसम्बर -2013 का अंक कहानी के लिए प्रस्तावित
हो चुका था ,मैं इस तरह का हस्तक्षेप करता
भी नहीं, अत: मैने असमर्थता जताई ।फिर कहा कि आप अपने परिचित श्री देवेन्द्र बहल
जी से बात कर लीजिए । मैंने कहा कि मैं शाम तक पूछकर बताऊँगा ।बात पूरी होते ही
इन्होंने तुरन्त देवेन्द्र बहल जी को फोन मिलाया । मेरा सन्दर्भ देकर उनसे हाइकु-विशेषांक निकालने
की बात कर ली ।सम्भवत: यह मन में यह खटका रहा होगा कि कहीं देवेन्द्र बहल काम्बोज
जी को यह काम न सौंप दें; क्योंकि बहल जी फ़रवरी में हाइकु और लघुकथा के लिए मुझे
10-10 पृष्ठ दे चुके थे । उदारमना बहल जी ने स्वीकृति दे दी और मुझे फोन पर बता दिया कि आपका सन्दर्भ देकर
मुझसे आग्रह किया था । मैंने उनको हाँ कर दी ।
मैं क्या कहता ? इसके बाद
सरस्वती सुमन के लिए एकत्र की गई सामग्री डॉ दीक्षित ने मासिक अभिनव इमरोज़
के लिए भेज दी । रचना श्रीवास्तव के हाइकु इस पत्रिका में नहीं दिए गए , क्योंकि ‘मन के
द्वार हज़ार’ में इनका नाम फ़्लैप
पर नहीं था । सुशीला शिवराण ने सहयोग राशि देकर इनके संग्रह में छपने से मना कर दिया
था । किसी कारणवश हरकीरत ‘हीर’ के भी हाइकु इस विशेषांक में नहीं लिये गए।ये तीनों हाइकुकार किसी भी
दृष्टि से डॉ दीक्षित की तुलना में उन्नीस नहीं हैं । इनका यह नारी -द्रोह मेरी समझ
में नहीं आया ।यही नहीं हाइकु के लिए बरसों से समर्पित हिन्दी-
जगत् के कई वरिष्ठ रचनाकारों का जिक्र अभिनव इमरोज़ के सम्पादकीय तक
में भी नहीं किया ।इसे दुर्भावना ही कहा जाएगा ।रचनात्मक सहयोग करने वालों की तो बात
छोड़ दीजिए, उनका जिक्र करना इन्होंने सीखा ही नहीं ।
लम्बी प्रतीक्षा के बाद डॉ आनन्द
सुमन सिंह जी ने यह काम मुझे और जौहर जी को दिया था। हाइकु से अधिक
परिचित न होते हुए भी उनका सम्पादकीय साहस अनुकरणीय है । मुझसे जौहर
जी भी सामग्री ( ई –मेल द्वारा
यूनिकोड
, कभी चाणक्य , कभी पीडीएफ़ कभी डाक द्वारा
) कभी पुस्तकें , कभी लेख लिखने के लिए चुने हुए हाइकु मँगवाते गए।इन्होंने
मेरी भेजी या मेरे द्वारा भिजवाई कोई पुस्तक, हाइकु विषयक सामग्री
नहीं पढ़ी , न कोई प्रतिक्रिया
ही दी । विशेषांक फिर भी विलम्बित था । सम्पादकीय में क्या लिखना है , वे बिन्दु भी मई और जून में दो बार मँगवाकर रख लिये। अगस्त आते-आते आप इतने व्यस्त हो गए कि मुझसे या प्रधान सम्पादक से बात करना भी उचित
नहीं समझा । मुझे लगा कि इनका अहंकार इनके साहित्यकार से भी बड़ा हो गया।इनके
निर्रथक आश्वासनों का धैर्यपूर्व इन्तज़ार करके डॉ आनन्द सुमन सिंह जी
ने सितम्बर में मुझसे इस काम को पूरा करने के लिए कहा । मैंने जब सरस्वती कार्यालय
को प्राप्त सामग्री भेजने के लिए कहा तो मुझे जो सामग्री मिली ,वह हैरान करने वाली थी । वह पूरी सामग्री वाकमैन चाणक्य में बदलकर मेल द्वारा
मेरी ही भेजी हुई सामग्री थी । बस उस प्रेषित सामग्री से मेरा सन्देश हटाकर अपना अलग सन्देश और नाम चिपका लिया
था ।उसमें
उनके और सुनीता वर्मा के वे हाइकु भी थे, जो कभी
‘हिन्दी
हाइकु’ में छपे थे , जिनको मैंने अपनी इस फ़ाइल में जोड़ लिया था । जौहर जी ने मेरी उस सामग्री
को स्वयं द्वारा टाइप कराया हुआ बताया था ! डॉ मिथिलेश
दीक्षित से प्राप्त सामग्री जौहर जी ने किस
कुएँ में डाली , वे ही जानते होंगे ।
इस अंक को पूरा करते समय मैंने
डॉ सुधा गुप्ता के सौजन्य से कुछ लोगों के हाइकु प्राप्त किए । मेरे अनुरोध पर कई स्नेही साथियों ने 15-20 दिन की अवधि में लेख लिखकर दे दिए । इस अंक
को तैयार करने में हिन्दी हाइकु से जुड़े सभी साथियों ने मेरे एक बार मेल भेजने पर तुरन्त
सहयोग किया, बिना यह पूछे कि मैं इन हाइकु का क्या उपयोग करूँगा । डॉ मिथिलेश दीक्षित
के हाइकु उनके द्वारा भेजी ई मेल से लिये ,जो लगभग दो साल पहले भिजवाए थे ।
अंक को अच्छा बनाने के लिए डॉ सुधा गुप्ता
, डॉ भावना कुँअर , डॉ हरदीप सन्धु ,डॉ ज्योत्स्ना शर्मा , डॉ जेन्नी शबनम ,डॉ सतीशराज पुष्करणा और अनिता ललित ने हर कदम पर सहयोग किया ; प्रूफ़ चैक करने तक में भी । इस अंक को अन्तिम स्वरूप देने में मैंने अपने
इन्हीं साथियों की सलाह ली है ।इनमें से किसी ने मुझे निर्देशित नहीं किया । न
ये ये दिशा-निर्देशन देने के
अहंकार से पीड़ित हैं। इनके अलावा जिसी अन्य का परामर्श या दिशा -निर्देश
लेने का प्रश्न ही नहीं उठता ; क्योंकि
दिशा -निर्देश लेकर काम करना मेरी प्रकृत्ति
नहीं है और न मेरे काम का हिस्सा । ऐसा आग्रह कभी
आदरणीय डॉ आनन्दसुमन सिंह जी ने भी नहीं किया । मुझे इच्छानुसार कार्य करने
की छूट दी है।
मेरा उद्देश्य स्वयं को
प्रायोजित करना नहीं था । मैं उन नए-पुराने रचनाकारों को एक साथ लाना चाहता था, जो
कुछ काम कर चुके हैं या जिनमें काम करने की सम्भावना है, जो चापलूसी की बजाय
रचनात्मक कार्य में विश्वास करते हैं।जो मेरे भरोसे पर बिना कुछ पूछे मुझे अपनी
रचनाएँ तुरन्त भेज देते हैं।उन रचनाओं को मैं और अधिक देर के लिए किसी के अतिथि
सम्पादकीय अहं को सन्तुष्ट करने का चारा नहीं बनाना चाहता था और न किसी पत्रिका के
समर्पित सम्पादक को अन्य तथाकथित विशेषांक के
सम्पादकों की तरह गुमराह करना चाहता था ।मैंने अपना लेख भी सबसे बाद में रखा
था, ताकि कोई सामग्री हटाई जाए तो मेरा लेख भले ही हट जाए, पर अन्य साथियों की सामग्री बनी रहे ।
जीवित रहने के लिए मुझे दो
वक्त का सादा भोजन चाहिए ।इसके लिए मुझे केन्द्रीय विद्यालय संगठन से पेंशन मिल जाती
है । पुरस्कार के नाम पर आप सब भाई बहनों का निश्छल प्यार चाहिए, जो मुझे हर क़दम पर मिला है । मैं किसी समारोह में मुख्य अतिथि को पीछे
धकेलकर फोटो खिंचवाने का शौक नहीं पालता , किसी के किए गए काम को अपने नाम लिखवाने
की चालाकी को मैं नीचता समझता हूँ । अपने से छोटों के काम को अनदेखा करना , उनके
अच्छे काम की प्रशंसा न करना सबसे बड़ी क्रूरता है । अवसरवादी , चालाक और धूर्त्त लोगों को ढोने में मेरा विश्वास नहीं है ।
मैं और सम्पादन में मुझे अपने साथ रखने वाले व्यक्तियों में
सुकेश साहनी, डॉ भावना कुँअर , डॉ हरदीप
सन्धु एवं हिन्दी चेतना समूह के सभी साथी किसी को संरक्षक बनाकर उसकी जेब ढीली
करने में विश्वास नहीं रखते और न सहयोग के नाम पर वसूली करके कूड़ा छापने में विश्वास करते हैं। साहित्य का काम जोड़ना
है
, तोड़ना नहीं। हाइकु और लघुकथा से जोड़ने का काम मैंने अपने विदेश
प्रवास में भी किया है।यह बात भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि विशेषांक लम्बित होने
पर भी डॉ आनन्दसुमन सिंह जी ने बहुत धैर्य से काम लिया है , जो
अनुकरणीय है।हम सबका दायित्व है कि अपने व्यवहार में पारदर्शिता लाएँ, हिन्दी की
सेवा करने वालों को सच्चे मन से रचनात्मक सहयोग करें ।
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