पथ के साथी

Wednesday, September 25, 2024

1433

 

शब्द- रश्मि विभा त्रिपाठी

फुसफुसाहट, शालीन संवाद


बहस या चीख़-पुकार
शब्द बुनते हैं एक दुनिया

खोलके अभिव्यक्ति के द्वार
एक रेशमी रूमाल 

या एक नुकीली कटार
या दिल को बेधते 

या पोंछते हैं आँसू की धार

स्याही और कलम से 

ये बनाते हमारे भाग्य की रेखाएँ
इन्हीं शब्दों के गलियारे से 

हम तय करते हैं दिशाएँ
सब भस्मीभूत कर दे

एक शब्द वो आग भड़का दे
जीवन छीन ले या फिर से 

किसी का दिल धड़का दे

नीरव को कलरव में बदले

फिर कलरव का खेल पलटता
शब्द की डोर से आदमी 

आदमी से जुड़ता और कटता
शब्द दुत्कारता या 

आवाज़ देकर पास बुलाता है,
पल में रोते को हँसाता है

हँसाते को रुलाता है
शब्द के दम पर ही 

कोई बस जाता है यादों में
ये ही छलिया और ये ही 

साथ जीने- मरने के वादों में
दूरियों की दीवार में बना देते हैं 

ये नजदीकी का दर
शब्दों के पुल पर हम मिलते 

उस पार से इस पार आकर
चुप्पी के हॉल में 

शब्दों का ही गूँजता संगीत है
इन्हीं से बनते हैं दुश्मन

इन्हीं से हर कोई अपना मीत है

विश्वकोश के बाग में जाएँ

तो शब्दों के फूल करीने से चुनें
कुछ भी कहने से पहले 

थोड़ी इन शब्दों की भी सुनें
शब्द हमें दूर कर सकते हैं

शब्द ही हमें रखते हैं साथ
खोलते दिल के दरवाज़े 

शब्दों के गमक भीगे हाथ
उसने शब्दों के वो फूल चुने थे

जिनमें थी पुनीत प्रेम की सुवास

वो नहीं है मगर 

ज़िन्दा है उसके होने का अहसास
-0-

Sunday, September 22, 2024

1432

 

क्या मुश्किल ले जो ठान
     - सुशीला शील राणा

 


बेटों के वर्चस्व वाली दुनिया में
बेटियों का आना
कब उत्सव हुआ

न कोई थाली बजी
न बधावे के गीत गूँजे
न कोई मिठाई
खीर-लापसी
न कोई जीमना
न जिमाना

जच्चा भी
अनकिए अपराध के बोध से
कुछ सहमी- सी
स्वीकारती है हर ताना
सहती है चुपचाप
शब्दों के तीर

दुलारती है नन्ही- सी जान को
कुछ
यों
मानो जच्चा के कक्ष की दीवारों में
लगे हों आँख-कान
जो कर देंगे चुगली
बेटी को लाड़ लड़ाने के अपराध की
घर भर से

पिता भी
अपने माता-पिता
समाज की लाज-लिहाज-शर्म के
बोझ तले दबे
दबाते रहे अपनी इच्छाएँ
लाड़ो को बाँहों में झुलाने
काँधे पर
गाँव-गुआड़ में घुमाने की

खरपतवार सी
बढ़ जाती हैं बेटियाँ
बेटों को मिली
सुविधाओं से वंचित
अव्वल आती हैं बेटियाँ

कर दी जाती हैं पराई
उनके सपने
उनकी प्रगति
चढ़ जाते हैं बलि
अच्छे घर-वर की चाह में

संस्कारों के साँचों में ढली
कब कर पाती हैं विरोध
माँ-बाप के सुख पर
अपना सुख
न्यौछावर कर देती हैं बेटियाँ

बुनती हैं बया सा सुंदर घोंसला
पालती हैं नन्हीं जानों को
वृद्ध सास-ससुर को
सबको सँभालते-सँभालते
ख़ुद को खो देती हैं बेटियाँ

जितनी भी बचती हैं शेष
दोनों घरों में बँटते-बँटाते
फिर भी रहती हैं विशेष बेटियाँ

असहाय बूढ़े माँ-बाप की
हो जाती हैं लाठी
ताक पर धर देती हैं समाज
उसकी रूढ़ियाँ
माँ-बाप के लिए
ढाल हो जाती हैं बेटियाँ

बेटियों के अपराधी
समय-समाज-रूढ़ियाँ
माँग रहे हैं माफ़ी
सृष्टि की जनक
सृष्टि की पालक
सृष्टि की
संवाहक
सृष्टि का शृंगार हैं बेटियाँ

वधुओं को तरसते आँगन
नन्ही किलकारियों को
तरसते कान
कब से रहे हैं पुकार
बेटी है तो सृष्टि है
बचानी है अगर सृष्टि
तो बचा लो बेटियाँ

बचा लो बेटियाँ
कि बच पाए इंसान की ज़ात
बच पाएँ पीढ़ियाँ
आसमां में मंडराते बाज़-गिद्धों से
बचानी हैं चिरैयाँ
तो बाँध दो इनके पंजों में
वीर शिवा का वही वाघ
-नख
जो फाड़ दे वहशी की अंतड़ियाँ
बाँध दो इनके परों में
पैनी ब्लेडों की पत्तियाँ
कि उड़ा दें हर बुरी नज़र की
चिंदी-चिन्दियाँ

अब घर-घर हो शंखनाद
बजे रण की भेरी
बिटिया नहीं उपभोग
हर भक्षी के लिए
हुई बारूद की ढेरी
बेटी है रानी झाँसी
संग जिसके झलकारी
कर्णावती-दुर्गावती
क्या मुश्किल ले जो ठान
बिटिया! तू बन रज़िया सुल्तान

-0-

Thursday, September 5, 2024

1431

मेरी दो शिक्षिकाएँ

1-बत्रा आंटी/  अंजू खरबन्दा

 


सरकारी विद्यालयों में पहली से पाँचवीं तक एक ही अध्यापिका रहती थी। हर कक्षा उत्तीर्ण होने के साथ- साथ वह अध्यापिका भी हमारे साथ अगली कक्षा में आ जाती । मेरी प्रथम अध्यापिका रही बत्रा आंटी ।

 

हाँ हम उन्हें आंटी ही पुकारा करते। बुआजी बताती हैं कि पहले उन्हें बहनजी कहा जाता था, वक्त बदला, तो वे आंटी कहलाने लगी और काफी बाद में जाकर वह मैडम कहलाईं

उस समय हम लोग टाट- पट्टी पर बैठा करते थे। एक कक्षा में कुछ- कुछ  दूरी पर चार- टाट पट्टियाँ बिछी थीं। रोल नंबर के अनुसार हमारी बारी होती कक्षा की सफाई की । रोज दो लड़कियाँ इस कार्य को दक्षता से करतीं व बत्रा आंटी की शाबाशी पातीं । उनकी शाबाशी पाना मानो मैडल जीतना! पूरा दिन खुशी व गर्व से बीतता कि आज हमारे हिस्से उनकी शाबाशी आई ।

बत्रा आंटी सुबह जब कक्षा में प्रवेश करतीं, तो सब बच्चे खड़े होकर अभिवादन स्वरूप जोर से चिल्लाते-"कक्षा स्टैंड"

वह प्यारी सी मुस्कान बिखेरती हुई कहती

"बैठ जाओ"

फिर शुरू होता क्रम अपनी- अपनी तख्ती दिखाने का ।

मोतियों जैसी लिखावट होने के कारण मुझे हमेशा शाबाशी ही मिलती। लिखावट में मुझे पुरस्कार भी मिला था। उस समय पुरस्कार स्वरूप टूथब्रश और पेन मिला करते थे।

हमारे समय चार विषय ही हुआ करते-गणित, विज्ञान, हिंदी और सामाजिक विज्ञान ।

पहाड़े याद करने के लिए हम सभी बच्चे जितना दम लगाकर बोल सकते, उतनी जोर- जोर से चिल्लाते हुए पहाड़े बोलते-

दो एकम दो

दो दूनी चार

दो तिया छह....

फिर हिंदी के दोहे याद कर खूब जोर- जोर से बोले जाते, ताकि अच्छे से कण्ठस्थ हो जाएँ। लगभग सभी कक्षाओं से ऐसी ही आवाजें आया करतीं ।

खुले- खुले हवादार कमरे और खिड़की के बाहर लगे हरे भरे वृक्ष। बड़ा ही रमणीक दृश्य होता था सरकारी स्कूल का उस वक्त ।

बत्रा आंटी के साथ मेरा गहरा लगाव रहा । उनका सरल व्यवहार व प्रेमपूर्वक सभी बच्चों पर ध्यान देना इसका कारण हो सकता है । मुझे स्वतंत्रता शब्द बोलने में बड़ी मुश्किल आई तब बत्रा आंटी ने मेरे हाथ में चॉक देते हुए कहा- ‘‘बार- बार बोर्ड पर लिखो और ध्यान से पढ़ते हुए ये शब्द दोहराओ।"

जाने कौन- सा जादू हुआ कि कुछ ही देर में मैं स्वतंत्रता शब्द बिना अटके बोलने लगी ।

मैं पाँचवीं में थी जब मेरी मम्मी का देहांत हुआ। स्कूल आकर मैं चुपचाप खिड़की के पास खड़ी रहती, तब बत्रा आंटी मेरे पास आती, स्नेह से अपना हाथ मेरे सिर पर रखती, मेरा नन्हा- सा हाथ अपने मजबूत हाथों में थाम मुझे प्यार से समझाती ।

आज भी उनका चेहरा आँखों के सामने है । वह जहाँ भी हो खुश रहें स्वस्थ रहे, प्रभु से यही कामना है ।

-0-

2-सुमन शर्मा मैम

 

लम्बी, गोरी, खूबसूरत, हल्के  घुँघराले बालों का ढीला- सा जूड़ा और तिस पर गुलाब का फूल लगाए,  दुनिया का सबसे दिलकश चेहरा! ऐसी थी हमारी सुमन शर्मा मैम ।

उनका साड़ी बाँधने का तरीका ऐसा कि उन पर से नजर ही न हटती। जो उन्हें देखता, बरबस देखता ही रह जाता। उनका सम्मोहन ही था कि क्लास की शैतान से शैतान लड़कियाँ भी उनकी क्लास में चुपचाप बैठकर पढ़तीं।

जब वह बोलती, तो मानो फूल झरते, जब वह मुस्कुराती, तो मानो फिजा खिल उठती और जब वह किसी बात पर हँस पड़ती, तो मानो हवाएँ गीत गाने लगतीं

वह हमें हिंदी पढ़ाया करती । उनके पढ़ाने का अंदाज ऐसा कि हम एकटक उन्हें ही निहारा करते । किताब हाथ में थामे, जब वह अपना हाथ हिलाते हुए पाठ समझाती, तो हम सभी सम्मोहित हो उन्हें सुनते ।

जब वह पहाड़ों के बारे में विस्तृत वर्णन करती, पहाड़ साक्षात् आँखों के आगे आ खड़े होते। जब वह नदियों के बारे में पढ़ाती, नदियाँ आस पास लहराने लगतीं! जब कोई कहानी सुनाती, उसके पात्र हमसे बातें करने लगते। जब कोई कविता कहती, ऐसा समाँ बँध जाता कि कोई सुध बुध ही न रहती ।

बाकी विषयों की क्लास में हम घंटी बजने की प्रतीक्षा करते; परंतु सुमन मैम की क्लास में कब घंटी बज जाती, होश ही न होता ।

उन्हें निहारते, उनसे पढ़ते न जाने कब उन जैसा बनने का सपना मन में पलता चला गया और आज.... उनसे प्राप्त किया हुआ ज्ञान व उनकी तरह ही पढ़ाने का तरीका मेरे कितने काम आ रहा है, यह सोचकर खुद पर हैरान होती हूँ। उन्हीं की तरह, गहराई तक जाना और तब तक समझाना, जब तक कि खुद को व बच्चे को तसल्ली न हो जाए ।

जब बच्चे मुझसे कहते हैं, आप जब पढ़ाते हो, तो आँखों के आगे पूरा सीन क्रिएट हो जाता है, तब सुमन मैम और भी याद आती हैं

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1430

 

समय शिक्षक/ सुरभि डागर 

 


 

रिक्त पात्र हो तब भी 

शिक्षा ही भरपूर बनाती है

कठिन राह हो जीवन में 

गुरु की याद दिलाती है 

हैं शिक्षक अनेकों जग में

वक्त से बड़ा न शिक्षक कोई।

राम चले थे जब वन को 

गुरु शिष्ठ ने ज्ञान दिया

समय कठिन था  फिर भी

गुरु के शब्दों को मान दिया 

मर्यादा पुरुषोत्तम बने राम 

शबरी, अहल्या, केवट तक को 

उसी राम ने तार दिया ।

जिसकी धनुर्विद्या के आगे

रावण भी था  हार गया।

 गुरु द्रोण से लेकर  शिक्षा

अर्जुन ने  राष्ट्र-उद्घार किया।

बने गुरु जब सुदर्शनधारी

पार्थ को गीता - सार दिया।।

माँ जीजाबाई बनी गुरु तो

शिवा कोर्म आधार दिया