पथ के साथी

Thursday, December 31, 2020

1038-करो भोर का अभिनंदन

 

1-करो भोर का अभिनंदन

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

मत उदास हो मेरे मन

करो भोर का अभिनन्दन!

 काँटों का वन पार किया

बस आगे है चन्दन-वन।

बीती रात, अँधेरा बीता

करते हैं उजियारे वन्दन।

सुखमय हो सबका जीवन!

 आँसू पोंछो, हँस देना

धूल झाड़कर चल देना।


उठते –गिरते हर पथिक को

कदम-कदम पर बल देना।

मुस्काएगा यह जीवन।

 कलरव गूँजा तरुओं पर

नभ से उतरी भोर-किरन।

जल में ,थल में, रंग भरे

सिन्दूरी हो गया गगन।

दमक उठा हर घर-आँगन।

-0-

 






 







2-अलविदा-मंजूषा मन

 


मैं भी वैसे ही आया था

इस दुनिया में,

जैसे सब आते हैं

अबोध नवजात,

कोमल,

एक बर्फ़ीली रात में ठिठुरता,

 

नहीं जानता था

क्या होती है विपदा

दर्द और पीड़ा से अनजान

मैं...

खाली हाथ था,

नहीं लाया अपने साथ

शुभाशुभ का पूर्वाग्रह,

कोई रोना।

 

अभी चलना सीख ही रहा था

कि थम गया सब कुछ,

आपदाओं ने पसार लिए पाँव,

 

मैंने किसी को नहीं मारा,

कब्रों और जलती चिताओं का

मैं केवल साक्षी बना,

नहीं किया कुछ भी तहस नहस

मैंने अपने हाथों से,

 

मेरे सिर क्यों फोड़े सारे ठीकरे

मेरे माथे क्यों मढ़े सारे कलंक

सारी मौतें, सारी भूख

 

मुझे तो बीतना था पन्ने दर पन्ने

सो लो मैं बीत चला,

 

लाओ समेट कर धर दो

मेरे हाथों में सब

मैं लाया तो नहीं था

पर सम्भवतः ले जा सकूँ।

 

मैं... दो हजार बीस

ले जाऊँगा तुम्हारे दिए सारे आरोप,

तुम्हारी पीड़ा,

फिर कभी लौटकर न आऊँगा,

अलविदा... अलविदा... अलविदा...

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 अभिनन्दन नववर्ष तुम्हारा-

डॉ सुरंगमा यादव 

            आओ मिल गाएँ स्वागत गीत!


जग देहरी पर नवल सूर्य का
देख आगमन हर्षित जन-मन
मंगलकारी-भव दुःखहारी
बन कर आया मीत
           आओ मिल गाएँ स्वागत गीत !
क्रन्दन कलरव में बदले
टूटे तार जुड़ें मन के
गूँज उठे फिर जीवन में
खोया मृदु संगीत
             आओ मिल गाएँ स्वागत गीत !
अभिनन्दन नववर्ष तुम्हारा
हर्षाए आँगन- चौबारा
गत दुःख की छाया से जग
फिर न हो भयभीत
            आओ मिल गाएँ स्वागत गीत!

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4- दीप हूँ मैं-पूनम सैनी

 

जल रहा है मेरा कण - कण 


मिट रहा हूँ मैं प्रतिक्षण

अंधियारे से टक्कर लेता

रोशन जहाँ बनाता हूँ मैं

बस इतना ही सोचकर...

जन-जन के लिए एक सीख हूँ मैं

जलना काम है मेरा

दीप हूँ मैं...दीप हूँ मैं।

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Thursday, December 17, 2020

1037-चलो भरें हम भू के घाव

ज्योत्स्ना प्रदीप

(जयकरी/ चौपई छन्द/

विधान~चार चरण,प्रत्येक चरण में 15 मात्राएँ,अंत में गुरु लघु।दो-दो चरण समतुकांत।)

 

धरती  जीवन   का   आधार।


धरती  पर   मानव - परिवार ।।

 

जीव - जंतु  की  भू  ही  मात।

धर्म -  कर्म  कब   देखे   जात।।

 

झील, नदी, नग ,उपवन,खेत ।

हिमनद, मरुथल , सागर,रेत ।।

 

हिना  रंग   की    मोहक   भोर।

खग का  कलरव  नदिया  शोर।।

 

करे यहाँ  खग   हास - विलास ।

अलि ,तितली की मधु की प्यास।।

 

तारों  के   हैं    दीपित    वेश।

सजा   रहे   रजनी  के   केश।।

 

नभ  में  शशि -रवि  के कंदील।

चमकाते   धरती   का  शील।।

 

युग बदला  मन बदले   भाव ।

मानव  के  अब बदले  चाव  ।।

 

हरियाली   के   मिटे    निशान ।

वन , नग   काटे  बने   मकान ।।

 

मानव  के   मन  का ये  खोट ।

मही -हृदय   को  देता  चोट ।।

 

मत   भूलो   हम  भू - संतान ।

करो सदा  सब  माँ  का  मान।।

 

हरियाली  का   कर   फैलाव ।

चलो भरें  हम  भू   के   घाव।।

b

 

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Friday, December 11, 2020

तीन कविताएँ

  1- तुम्हारी ओर!

डॉ. सुरंगमा यादव

थक न जाएँ  कदम


तुम्हारी ओर बढ़ते-बढ़ते
कुछ कदम तुम भी बढ़ो न !
चलो यह भी नहीं तो
हाथ बढ़ाकर थाम ही लो
ये भी न हो अगर
तो मुस्कराकर
इतना भर कह दो
'मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा है'
बस मैं सदा तुम्हारी ओर
बढ़ती रहूँगी!

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2-बड़ी हुई है नाइंसाफी

भावना सक्सैना


राजधानी का रुख करते हैं
,

सत्ता से हैं बहुत शिकायत

सड़कें जाम चलो करते हैं।

 हों बीमार, या शोकाकुल हों

हम तो रस्ता रोकेंगे जी

कहीं कोई  फँस जाए हमें क्या

अपनी ज़िद पर हम डटते हैं।

 सत्ता ने ठानी सुधार की

वह तो अपने लिए नहीं जी

वंचित का चूल्हा बुझ जाए

हम अपने कोष हरे रखते हैं।

 सब्सिडी भी लेंगे हम तो

टैक्स रुपये का नहीं चुकाएँ

कर देने वाले, दे ही देंगे

तोड़-फोड़ हम तो करते हैं।

 सरकारों से बदला लेने

देश हिलाकर हम रख देंगे

हम स्वतन्त्र मन की करने को

आम जनों को दिक करते हैं।

 हमको बल ओछे लक्ष्यों का

कुर्सी के लालच, पक्ष हमारे

अपनी बुद्धि गिरवी रखकर

हम कठपुतली से हिलते हैं।

 बड़ी हुई है नाइंसाफी

राजधानी का रुख करते हैं,

सत्ता से हैं बहुत शिकायत

सड़कें जाम चलो करते हैं।

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 3-किताब

संध्या झा

  किसी ने सच ही कहा है-


 जिसने किताबों से दोस्ती कर ली 

  वो फिर अकेला कहाँ ।

  किताबों ने बस दिया ही दिया है ।

  उसने कुछ लिया है कहाँ  

 

किताबों को जिसने

अपना हमसर बनाया है ।

 किताबों ने भी हर राह पर साथ निभाया है  

 किताबें आपकी सोच में  फ़र्क़ करती है  

 किताबें आपको मीं से आसमाँ पे रखती है ।

 

 किताबें सहारा किताबें  किनारा ।

किताबें अँधेरी गलियों में चमकता सितारा ।

किताबों की सोहबत जैसे ख़ुद से मोहब्बत ।

किताबे सवारे बिगड़ी हुई सीरत  ।।

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Sunday, December 6, 2020

1035

 1-मुकेश बेनिवाल

 

हर बदलाव


मुझमें ही चाहते हो
 

ख़ुद से कभी पहल नहीं करते

छोड़ देते हो

कठिन-सा सवाल समझकर

तुम मुझे कभी हल नहीं करते

 

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2- गीत-पूनम सैनी

 


मैं गिरिधर की दासी मीरा

दर्शन को बेचैन।

तुम बिन तरसे नैन।।

 

एक तो मीरा श्याम दीवानी

दूजी जग की सताई,

प्रेम तुम्हीं हो आस तुम्हीं से 

प्रभु बिन कौन सहाई

मीरा को मन मोहन वारे

मन की सुनलो बैन

तुम बिन तरसे नैन

 

एक तो हूँ मैं अमर सुहागन

दूजी श्याम की प्यारी

तुमसे टूटके कौन से जोड़ूँ

मैं भई मोहन थारी

मीरा को मन मोहन वारे

मन की सुनलो बैन

तुम बिन तरसे नैन

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3-क्षणिकाएँ

प्रीति अग्रवाल  'अनुजा'

1.


ये हवाएँ,
बड़ी मनचली हो गई हैं.....
मेरी छत के बादल,
तेरे आँगन बरसाएँ !
2.
अबला की अब भी
वही है कहानी,
आँचल में दूध...
और 

आँखों में  फिर भी पानी...!
3.
बेकरार दिल
आज फिर कह रहा-
कहीं आँखों से काजल
किसी का बहा है....।
4.
किस हाल में हैं
अब कहें भी तो क्या...,
तेरे कदमों के निशां
रेत पर ढूँढते हैं....!
5.
है लम्बा स
क्यों न आसान कर लें,
झूठे, सच्चे सही,
कुछ वादें ही कर लें...!
6.
हल्का- हल्का सही,
इश्क चढ़ने लगा...
वै ढूँढे कोई,
कोई दवा तो बताए...!
7.
बरसते सावन का
करके बहाना...,
बड़ी फ़ुर्सत से रोए,
तुझे याद करके...!
8.
सर्दी की नर्म धूप-सी
तुम्हारी ये चाहत,
मैं मोम की नहीं...,
जाने क्यों पिघल रहीं हूँ...।
9.
भला कैसे मान लूँ
तुम मुझे भूला चुके...,
मैं झूठ कह सकती हूँ
तो क्या तुम नहीं...!
10.
वो भीगी-सी रात
फिर न लौटी कभी,
उसकी याद में चाहे
जितनी पलकें भिगो लीं..!
11
कहतें हैं जिसे इश्क
लगता है ये वही...
न आग में है आग
न पानी में नमी....!


12.
दास्तान ए इश्क
कायनात में घुले,
फिर हम ही रहें
क्यों धुले के धुले..!

-0- ई-मेल-agl.preeti22@gmail.com

Friday, December 4, 2020

1034

 1-दीपक अभी - अभी जले हैं- मीनू खरे

 

गुलाबी ठंड 

सुरमयी शाम का वक़्त

दीपक बस अभी अभी जले हैं

फ़िज़ाओं में फैली अजब सी कैफ़ियत 

रूमानियत और सिहरन

अपनी चोटी में गुँथे  

बेले के गजरे की छुअन से सिहर मैं

देखती हूँ चारों ओर 

तुम अक्षर-अक्षर आने लगते हो शब्दों में

लिखने लगती हूँ कविता 

बनने लगते हैं भावनाओं के ख़ूबसूरत महल 

मोहब्बत की ख़ूबसूरत खिड़कियों से 

झाँकते दिखते हैं कुछ अनचीन्हे अक्स

पास जाती हूँ देखने 

अक्स अदृश्य डर का है 

पाने से भी पहले 

तुम्हें खो देने का 

कविता लिख ली गई है

शाम गहराने लगी है 

दीपक अभी भी जल रहे हैं

-0-

2- रात गई -वीरबाला काम्बोज

 

रात गई बात गई

मीठी, मीठी बाते करलें 

  आओ बैठे मिल-जुलकर 

कभी -कभी ख़्यालों में मिल।

 दुःख -सुख मिलकर बाँटे 

ख़पा न होना प्रीतम 

 चाँद न रूठे कभी 

चाँदनी से फिर क्यों दूरी

 -0-

3- स्त्री -अर्चना राय

1

 मन के समंदर में

भावनाओं का

उठता तूफान...  

 देख दायरे अपने

आँखों की कोरों पर.. 

आते- आते..... 

 ज्वार ठहर जाता है

2

जीवन रंगमंच पर

माँ, बेटी , बहिन, पत्नी

हर किरदार में सदा 

रही अव्वल.... 

 स्त्री!!!... 

 अपने ही किरदार में 

 क्यों?...विफल!! 

-0-अर्चना राय, भेड़ाघाट, जबलपुर (म.प्र.)