पथ के साथी

Wednesday, July 24, 2024

1425- पक्षी प्रसंग : तुलना से करें तौबा

 

 पक्षी प्रसंग : तुलना से करें तौबा

  विजय जोशी, पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल

√) हम में से हर आदमी अपने विशिष्ट गुणों के साथ जन्मा है। इन जन्मजात गुणों की


अभिवृद्धि एवं सदुपयोग ही हमारे जीवन का प्रयोजन होना चाहिए। इसी तरह हम में कुछ कमजोरियां भी जन्मजात होती हैं। हमारा ध्येय उन पर काबू करने या उनसे छुटकारा पाने का होना चाहिए।

√) एक वन में रहना वाला कौआ श्वेत हंस की तुलना में अपना रंग देखकर दुखी हो गया तथा हंस से अपनी व्यथा बाँटी। तब हंस ने कहा - मुझे तो तोते से ईर्ष्या होती हैक्योंकि वह दो रंग का है। मुझे लगता है कि उसे संसार का सबसे सुखी प्राणी होना चाहिए।

  √) कौए ने तोते को तब उस बात पर बधाई दी तो जो उत्तर मिला वह था - मैं सचमुच में सुखी थालेकिन केवल तब तक  जब तक कि मैंने मोर को नहीं देखा। जो न केवल बहुरंगी है। अपितु अत्यधिक सुंदर भी है. और तब उस कौए ने मोर से मिलने की ठानी। वह चिड़ियाघर पहुँचा तथा भीड़ के छँटने की प्रतीक्षा करने लगा। 

 


√) जैसे ही अवसर मिला उसने मोर को बधाई दी। लेकिन खुश होने के बजाय मोर ने अपनी व्यथा कौए को सुनाई। मुझे भी पहले यही लगता था: किंतु सत्य तो यह है कि अपनी उसी सुंदरता के कारण मैं आज इस चिड़ियाघर में कैद हूँ। मैंने हर एक बात का गहराई से परीक्षण किया और इस परिणाम पर पहुँचा कि कौवा एक मात्र ऐसा प्राणी है, जो उन्मुक्त और स्वच्छंद हैकिसी की कैद में नहीं। यदि मै भी कौआ होता तो आज स्वाधीन होताप्रसन्न होता। 

  √)  इस प्रसंग से उस कौए की आँखें खुल गईं। उसका सारा अवसाद एवं दुख पल भर में ही तिरोहित हो गया और मन हल्का। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

  √)  मित्रो! यही हमारी भी त्रासदी है। हम अनावश्यक रूप से दूसरों से स्वयं की तुलना करते हुए दुखी रहा करते हैं और इस तरह अपने आस पास दुखनिराशा और अवसाद का जाल बुन लेते हैं। इसीलिए, जो मिला है उसी में सुखी रहने का प्रयत्न कीजिए। हर एक को सब कुछ नहीं मिला करता है। आपके निकट का हर आदमी आप से कुछ मायनों में अच्छा और कुछ अर्थों में कमतर होगा। तो फिर किस बात की तुलना और किस बात का दुख। तुलना करने की तुला से नीचे उतरकर जीवन को सार्थक बनाइए।

थोड़ी बहुत कमी तो यहाँ हर किसी में है

दरिया भी खूबियों का मगर आदमी में है।

 

Tuesday, July 16, 2024

1424

 उफ

 रश्मि 'लहर'


 
रहती नहीं जवानी देख

नदी भी माँगे पानी देख

 

उम्र गुजरती चुपके-चुपके

रहती एक निशानी देख

 

पुतले दो मिट्टी के मिलके

गढ़ते नई कहानी देख

 

झिड़की तल्खी तोड़ रही है

मरता आँख का पानी देख

 

चकनाचूर किए जाती है

तोड़े रिश्ते बानी देख

 

मेरी मुश्किल मेरी मुश्किल

तू अपनी आसानी देख

 

तन छूने को ये जग हाजिर

बंध पे आनाकानी देख

 

जो सीखा उससे सीखा है

दुआ बनी है नानी देख

 

एक किनारा दे दे इसको

कश्ती हुई पुरानी देख

सपनों के कल फूल खिले थे

अब आँखों का पानी देख

 

आँखों में ये हुआ तमाशा

बुझा आग से पानी देख

 

साहिल ही है सच्चा साथी

लहर है आनी जानी देख

-0-

रश्मि 'लहर', इक्षुपुरी कॉलोनी, लखनऊ-226002

Thursday, June 20, 2024

1423

 तहजी़ब सुरभि डागर

 


नुमाइश है हजारों पर ना

नुमाइश जिस्म  की ना कीजि

पुरखों ने जो दी सौगात

उस इज्जत की लिहाज़ तो कीजि

हजारों सालों में कमाई दौलत

यूँ ना सरेआम तो कीजि

कहीं बहके कदम,थाम लो

जाम का प्याला अगर हाथ हो तो

याद अपने बाप की पगड़ी को कीजि

बढ़ती नापाक हरकतें

आजादी के नाम खुद को

बर्बाद ना कीजि

पैदा हुई लक्ष्मी बाई, जीजाबाई  हाँ

तहजीब अपने मुल्क की देख लीजिए।

नुमाश है हजारों पर ना

नुमश अपनी ना  कीजिए।

-0-

2-तुम्हारा प्यार रचती हूँ

प्रणति ठाकुर


मन में मैं तुमको हजारों बार रचती हूँ
 

तुम्हारा प्यार रचती हूँ..

जब क्षितिज के छोर से, रश्मियों के डोर से,

भोर मदमाती है आती तितलियों के ताल पर,

हर कली के भाल पर,

स्नेह का कुमकुम लगाती

ज़िन्दगी की आस बनकर,

प्रेम का विश्वास बनकर

जब रवि लिखता है पाती

तब प्रिये मैं भाव बनकर,

भूमि के कण में बिखरकर,

प्रेम का अनुपम अतुल आधार रचती हूँ....

तुम्हारा प्यार रचती हूँ....

 

इन्द्रधनुषी पंख लेकर

 नाचता है जब मयूरा

मोरनी के प्रेम को ही

 बाँचता है जब मयूरा 

जब दृगों से मोर के यूँ

प्रेम का अमृत है झता

देख अकलुष इस सुधा को,

प्रेम की इस सम्पदा को,

मैं भी साथी प्रेम का उद्गार रचती हूँ...

तुम्हारा प्यार रचती हूँ....

 

चाँद की चाहत कुमुदिनी

 के हृदय का द्वार खोले 

चाँदनी का प्यार पाकर

उदधि भी लेता हिलोरें 

सींचकर अमृत सुधाकर

बस निशा में प्यार घोले 

चाँद का उत्सर्ग पाकर,

उस मधुर पल में समाकर,

चाँद सा निर्मल - धवल अभिसार रचती हूँ..

तुम्हारा प्यार रचती हूँ.....

 

तुम हमारे प्रेम जीवन

की मधुर सी कल्पना हो

आँसुओं से जो रची जाती

वो ही  तो अल्पना हो

तुम हमारे प्राण के आधार मन की प्रेरणा हो

हूँ तुम्हारे बिन अधूरी,

पर बनी मीरा तुम्हारी,

वेदनाओं का विकल संसार रचती हूँ...

तुम्हारा प्यार रचती हूँ...

मन में मैं तुमको हजारों बार रचती हूँ 

तुम्हारा प्यार रचती हूँ.....

-0-

Sunday, June 16, 2024

1422-पिता की चिंता

  रश्मि शर्मा

 

हममें बहुत बात नहीं होती थी उन दिनों

जब मैं बड़ी होने लगी

दूरी और बढ़ने लगी हमारे दरमियाँ

जब माँ मेरे सामने

उनकी जुबान बोलने लगी थीं

 

चटख रंग के कपड़े

घुटनों से ऊँची फ्रॉक

बाहर कर दिए गए आलमीरे से

साँझ ढलने के पहले

बाजार, सहेलियाँ और

ठंड के दिनों कॉलेज की अंतिम कक्षा भी

छोड़कर घर लौटना होता था

 

चिढ़कर माँ से कहती -

अँधेरे में कोई खा जाएगा?

क्या पूरी दुनिया में मैं ही एक लड़की हूँ।

पापा कितने बदल गए हैं,

कह रूआँसी-सी हो जाती...

 

बचपन में उनका गोद में दुलराना

साइकिल पर घुमाना

सिनेमा दिखाना, तारों से बतियाना

अब कुछ नहीं, बस यही चाहते वो

हमेशा उनकी आँखों के सामने रहूँ।

 

मेरा झल्लाना समझते

चुपचाप देखते, कुछ न कहते वो

हम सबकी इच्छाओं, जरूरतों और सवालों को ले

बरसों तक माँ सेतु बन पिसती रहीं

 

कई बार लगता-

कुछ कहना चाहते हैं, फिर चुप हो जाते

मगर धीरे - धीरे एक दिन वापस

पुराने वाले पापा बन गए थे वो

खूब दुलराते, पास बुलाते, किस्से सुनाते

माँ से कहते – कितनी समझदार बिटिया मिली है!

 

यह तो उनके जाने के बाद माँ ने बताया -

थी तेरी कच्ची उमर और

गलियों में मँडराते थे मुहल्ले के शोहदे

कैसे कहते तुझसे कि सुंदर लड़की के पिता को

क्या - क्या डर सताता है...

 

बहुत कचोट हुई थी सुनकर

कि पिता के रहते उनको समझ नहीं पाई

आँखें छलछला आती हैं

जब मेरी बढ़ती हुई बेटियाँ करती हैं शिकायत

मम्मी, देखो न ! कितने बदल गए हैं पापा आजकल !

-0-

Friday, June 7, 2024

1421

  रश्मि विभा त्रिपाठी

1
कैसा दुनिया में हुआ
, लागू यह कानून।
करता अपना ख़ून ही, अब अपनों का ख़ून।।
2
घर की हालत क्या कहें, कैसे हैं परिवार।
हर आँगन में उठ गई, अब ऊँची दीवार।।
3
प्यार- मुहब्बत है कहाँ, किधर दिलों का मेल।
दुनिया में अब चल रहा, बस पैसे का खेल।।
4
आज गले में झूठ केपहनाते सब हार।
सच बेचारा हर तरफ, झेल रहा बस मार।।
5
आज ज़माने में चली,  कैसी सुंदर रीत।
बहरे बैठे सुन रहे,  सबके मन का गीत।।
6
आज कपट की राह मेंबिछे हुए हैं फूल।
सच्चाई अब तो हुईबस पाँवों की धूल।।
7
मीरा- मोहन- सा कहाँ, आज रहा है प्यार।
कलियुग में तो बन गया, अब यह इक व्यापार।।
8
घटना हर अख़बार की,  ये ही करती सिद्ध।
आज आदमी बन गया, सचमुच में इक गिद्ध।।
9
अपने घर- संसार में, लग ना जाए आग।
दो पैरों वाले बहुतबाहर घूमें नाग।।
10
गर्व न ऐसा तुम करोये ही कहता ईश।
रावण ने जिस गर्व से, कटा लिये दस शीश।।
11
जाने किसने कर दियालागू अध्यादेश।
जंगल के सब भेड़ियो, धर लो मानव- वेश।।
12
घर की छत पे भी कभी, नहीं बोलता काग।
पहले- सा अब ना बचा,  सम्बन्धों में राग।।
13
कहीं किताबों में छुपे, मिलते नहीं गुलाब।
चाहत राँझा- हीर की, अब तो है बस ख़्वाब।।
14
मुरझाए, सूखे पड़े, सभी प्यार के फूल।
मन के जंगल में उगे, जबसे घने बबूल।।
15
नाहक सच्चे प्रेम की, तुम करते हो आस।
इस जग में अब रह गया, केवल भोग- विलास।
16
पक्ष झूठ का नहीं लिया, कह दी सच्ची बात।
फिर उसको संसार नेबना दिया सुकरात।।
17
खून- पसीना एक कर, पाला राजा- पूत।
बड़ा हुआ तो बन गया, हाय वही यमदूत।।
18
छली अधम औ हैं यहाँ, डाकू, लम्पट, चोर।
इस जीवन की सौंप दें, कहिए किसको डोर।।
19
पल- पल आज बदल रहा, जाने कितने रंग।
मानव को यूँ देखकरगिरगिट भी है दंग।।
20
कितना अच्छा देख लो, दुनिया का यह पाठ।
हमको लोग पढ़ा रहेसोलह दूनी आठ।।
21
लक्ष्मण रेखा द्वार पे, इसीलिए दी खींच।
छद्मवेश ले फिर रहेरावण औ मारीच।।
-0-

Thursday, May 30, 2024

1420-28 अक्टूबर, 2015 की वो रात

 

विजय विक्रान्त  (कैनेडा )

कभी- कभी जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिनको समझना इंसानी समझ से बाहर होता है। मेरे साथ भी ऐसा जो कुछ हुआ, उसका अभी तक मेरे पास कोई जवाब नहीं है।


बात 24 जनवरी 2013 की है। उस दिन मेरा 75वाँ जन्मदिन था। पता नहीं, रह- रहकर उस दिन मुझे क्यों अपने पिताजी की बहुत याद आ रही थी? सोच रहा था कि काश वो आज यहाँ होते तो, कितना अच्छा होता। समय के बीतने का पता ही नहीं चला; क्योंकि उन्हें गुज़रे हुए 35 साल से भी ऊपर हो चुके थे। मृत्यु के समय पिताजी की उम्र 77 साल की थी। अचानक न जाने बैठै- बिठाए मेरे दिमाग़ में क्यों यह कीड़ा घर कर गया कि मैं भी 77 साल से ज़्यादा नहीं  जिऊँगा। बात आई- गई हो गई; लेकिन इस दिमाग़ी कीड़े ने परेशान करना शुरू कर दिया। न सोचते हु भी यह ख़्याल बार- बार आने लगा। कई बार तो ऐसा लगने लगा था कि  यह  बात सच होकर ही रहेगी। श्रीमती जी और बच्चों के आगे इस फ़ितूर के ग़ल्ती से मुँह से निकलने की देर नहीं कि मेरी शामत आ जाती थी। हालाँकि दो साल बाद मेरा 77 वाँ जन्मदिन बिना किसी विघ्न के बीत गया, फिर भी न जाने क्यों,  यह  ख़्याल मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा था।

इन्हीं दिनों मुझे ऐसा महसूस होने लगा था कि चलते समय मैं अपना सन्तुलन खो रहा हूँ। समय के साथ- साथ  यह  परेशानी और भी बढ़ती चली गई। डक्टरों से काफ़ी परामर्श करने के बाद आख़िर में हम दोनों ने  यह  फ़ैसला किया कि अब मेरे लि सर्वाइकल सरजरी कराना बहुत ज़रूरी हो गया है। भली भाँति जानते हु भी कि  यह  सरजरी बहुत ख़तरनाक है; मेरे पास इस के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था। आख़िर 27 अक्टूबर को मेरी सर्ज़री का दिन निश्चित हो गया। जैसे-जैसे 27 अक्टूबर का दिन पास आने लगा वैसे- वैसे ही मेरे मन में रह- रह के  यह  विचार मंडराना शुरू हो गया कि कहीं  यह  सरजरी मेरे मन में जो खटका लगा था उसकी पूर्ति का माध्यम तो नहीं है।

27 अक्टूबर को मेरी सर्जरी हो गई। सर्जरी के थोड़ी देर बाद डॉक्टर ‘मारमर’ ने मेरी श्रीमती जी को आकर समाचार दिया कि ऑपरेशन ठीक हो गया है और चिंता करने की कोई बात नहीं है। उसके बाद मुझे रिकवरी रूम में जाँच के लिए रखा गया। जैसा मुझे बाद में बताया गया था, दो या तीन घण्टे बाद मुझे रिकवरी रूम से हटाकर अस्पताल की चौथी मंज़िल पर ले जाया गया था। उस समय आस्पताल में मुझे अपने बारे में कुछ होश नहीं था; क्योंकि मुझे हर प्रकार की नींद की और दर्द कम करने की दवाइयाँ दे- देकर मेरी तकलीफ़ को कम करने की कोशिश जारी थी। 28 अक्टूबर को भी वही हाल था। हो सकता है कि कुछ समय के लिए थोड़ा बहुत होश ज़रूर आया होगा; लेकिन उसके बाद फिर वही मदहोशी का आलम। शाम होने पर मैं कहने को तो सो गया; लेकिन मैं ही जानता हूँ कि दर्द के मारे मैं कितना तड़प रहा था। दर्द मेरा इतना असहनीय था कि बताना बहुत मुश्किल था। बार- बार मुझे  यह  ख्याल आ रहा था कि कहीं  यह  सब मित्रों और परिवार के लोगों से आख़िरी मुलाकात का वक्त तो नहीं आ गया है।

अचानक मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कमरे में कोई और भी है। ग़ौर से देखा तो सामने पिताजी खड़े थे। थोड़ा और नज़दीक से देखा, तो अपनी वही काले रंग की अचकन पहने मुझे देखकर मुस्करा रहे हैं। देखने में वही सुन्दर रोबीला चेहरा। शीघ्र ही वो मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गए। कहा कुछ नहीं, बस मेरी ओर देखते रहे। थोड़ी देर बाद मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रखकर पूछा-‘‘बहुत दर्द हो रहा है क्या?’’। उन्हें देखकर मैं भौंचक्का सा हो गया फिर भी जैसे- तैसे हिम्मत करके मैंने मुँह खोलकर धीमे से कहा-‘‘पिताजी, आप यहाँ कैसे? चलो अच्छा हुआ आप आ गए। देखो, अब  यह  दर्द सहा नहीं जाता। अब आप आ ही गए हैं, तो मैं आपके साथ ही चलूँगा। इसी दिन का तो इन्तज़ार था मुझे बहुत दिनों से। आप एकदम बिल्कुल सही समय पर मुझे लेने आ गए हैं। अब देरी किस बात की है। चलो, बस जल्दी से चलो और मुझे इस घोर पीड़ा से छुटकारा दिला दो।’’

मेरा इतना कहना था कि वो मेरे और पास आकर सिर पर प्यार से हाथ फेरकर धीरे से बोले। बेटा, ये क्या बेकार की बातें कर रहे हो तुम? ज़रा से दर्द से घबरा गए।  तुम्हारी  यह  तकलीफ़ कोई बड़ी तकलीफ़ नहीं है। कुछ ही दिन की तो बात है,  सब ठीक हो जाएगा। याद करो वो 1969 में दिल्ली के सफ़दरगंज हस्पताल का 48 नम्बर कमरा, जहाँ तुम इस से भी अधिक पीड़ा  में पड़े हुए थे और मैंने इसी तरह तुम्हारे सिर पर प्यार का हाथ रख कर पूछा था- बहुत दर्द हो रहा है क्या?”?         ‘‘वह1969 की तकलीफ़ तो इस तकलीफ़ से भी कहीं ज़्यादा भयंकर थी। बुद्ध जयन्न्ती पार्क में तुम्हें जो चोट लगी थी, उससे निकलते हुए तुमको तकरीबन 9- 10 महीने लग गए थे। यह  तकलीफ़ तो उस तकलीफ़ के आगे कुछ भी नहीं है। फिर  यह  कोई चोट नहीं है। यहाँ तो तुम्हारी एक छोटी- सी परेशानी को डॉक्टरों ने दूर किया है। फ़िक्र मत करो, हिम्मत न हारो। तुम बहुत जल्द ठीक हो जाओगे। और हाँ, अपने दिमाग से इस 77 साल में मरने के फ़ितूर को निकाल कर फेंक दो और पूरा ध्यान अपने ठीक होने में लगाओ।

          विजय बेटा, सब से पहले तो तुम अपने दिमाग से मेरे साथ चलने का ख़्याल छोड़ दो। आज मैं तुम से कुछ और बातें भी करने आया हूँ। मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि तुम्हें और मेरी पुत्रवधू को इस बात का बहुत दुख़ है कि हम सब एक साथ इकठ्ठे हो कर नहीं रह पाए। यही नहीं, तुम दोनों को इस बात का भी बहुत मलाल है कि एक बेटा होते हुए भी, तुम दोनो हमें भारत में अकेला छोड़कर कैनेडा आकर बस गए। कई बार तो मैंने तुम दोनों को यह कहते हुए भी सुना है कि इस बात को लेकर तुम्हारे परिवार के ऊपर हम दोनों का शाप है। अरे पगले, कौन माँ बाप अपनी औलाद का बुरा चाहेगा और शाप देगा? हम तुम्हें शाप प देंगे,  यह  तुम ने सोचा भी कैसे? हमारा आशीर्वाद तो तुम सब के लिए सदा रहेगा। जहाँ तक रही हमारे कैनेडा आने की बात, सो तुम दोनों ने तो अपनी तरफ़ से हमें कैनेडा बुलाने की पूरी कोशिश की थी। मैं तो आने तो तैयार था; लेकिन जब तुम्हारी मातीजी ने साफ़ इंकार कर दिया, तो मैं क्या कर सकता था। उन्हें अकेले छोड़कर तो मेरा यहाँ आकर रहना नामुमकिन था।

बेटा, आज मैं वो एक बात दोहराना चाहता हूँ, जो शायद हो सकता है तुमको कभी बताई हो। तुम्हारे पैदा होने से पहले तुम्हारे एक भाई और एक बहन को हम ने बचपन में खो दिया था। जब तुम पैदा हुए, तो मैंने तुम्हारी जन्मपत्री बनवाई और तुम्हारे भविष्य के बारे में पण्डित श्याम मुरारी जी से पूछा। सब देखकर पण्डित जी ने कहा कि लालाजी, और तो सब ठीक है ,लेकिन आपको इस बेटे का सुख नहीं मिलेगा। यह सुनकर मैं बिल्कुल चुप हो गया। किसी से कुछ नहीं कहा; लेकिन मन में एक डर सा बैठ गया कि शायद तुम भी, अपने बहन और भाई की तरह, हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले तो नहीं जाओगे। जब भी तुम हमारी आँखों से दूर होते थे, मुझे इस बात का हमेशा डर रहता था। तुम्हारा कैनेडा जाना पण्डित जी की इस बात की पुष्टि करता है कि हमारी किस्मत में आपस में एक दूसरे का सुख नहीं था। जब भाग्य में यही लिखा है, तो फिर इस में तुम दोनों का क्या कसूर है? भूल जाओ इन सब बेकार की बातों को।

जाने से पहले एक बात तुम्हारे दिमाग से और निकाल देना चाहता हूँ, जिसे सोच सोचकर तुम अपने आपको रात- दिन कोसते रहते हो। याद करो 10 नवम्बर 1977 की सुबह और दिल्ली  में सर गंगाराम हस्पताल का कमरा। तुम्हें यह भी याद होगा कि मेरे एक फेफड़े के पंचर होने के कारण मुझे अम्बाला से दिल्ली इलाज के लिए लाया गया था  और मेरी तबियत अधिक ख़राब होने के कारण एक सप्ताह पहले तुम ईरान से मुझे मिलने आए थे।  बेटा, तुम 9 नवम्बर की रात को मेरे साथ रहे थे। 10 की सुबह को मैंने ही तुम्हें तुम्हारी बहन विजय लक्ष्मी के घर जाकर आराम करने को कहा था। यह सिर्फ़ इसलिए कि तुम  सारी रात सोए नहीं थे और बहुत थके हुए थे। तुम्हें भेजने के थोड़ी देर बाद ही मुझे ऐसा एहसास हुआ कि शायद वो मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी; क्योंकि मुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा था कि मेरा अब आख़री समय नज़दीक आ गया है और हुआ भी वही। मैंने चोला तो छोड़ दिया; लेकिन ध्यान मेरा तुम्हारे में ही अटका रहा। बाद में जब तुम सब घर वालों को मेरे जाने की ख़बर मिली, तो सब से अधिक दुख तुम्हें इस बात का हुआ कि आखिरी समय में तुम मुझको अकेला छोड़कर विजय लक्ष्मी के घर क्यों चले गए था। मुझे देह छोड़े हुए 38 साल हो गए हैं; लेकिन इस बात को लेकर तुम अब भी कभी- कभी बहुत परेशान हो जाते हो।  बेटा, इसे भाग्य का चक्कर नहीं कहेंगे तो फिर और क्या कहेंगे। ऐसा ही लिखा था, ऐसा ही होना था और ऐसा ही हुआ। चाहता तो मैं भी यही था कि तुम्हारी गोद में साँस छोड़ूँ; लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंज़ूर था। हम दोनों आपस में बाप- बेटे होते हुए  भी एक दूसरे को सुख नहीं दे पाए। हमें इसी में शान्ति मिलनी चाहिए कि जितना भी हमारा साथ रहा वो प्रेमपूर्ण रहा।

बेटा, जाते- जाते बस यही कहूँगा कि तुम्हारी  यह  तकलीफ़ बहुत जल्दी ठीक हो जाएगी। अब किसी भी बात को लेकर अपने मन को और दुखी मत करो और जितनी भी ज़िन्दगी है, उसे अपने परिवार के साथ हँसी ख़ुशी में बिताओ।

इसके बाद मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा माथा चूमा हो और मैं एकाएक किसी गहरी नींद से जाग गया हूँ। दर्द का अभी भी वही हाल था। फिर भी ऐसा महसूस होने लगा कि शायद कुछ कम हो रहा है। यह दवाइयों का असर था या पिताजी के मेरा माथा चूमने का, मुझे इस प्रश्न के उत्तर की तलाश है।

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