पथ के साथी

Thursday, June 28, 2007

रिश्तों की खातिर



(कविता -मेरी पसन्द)       डॉ० भावना कुँअर


बहुत दुखी हूँ मैं
इन रिश्ते नातों से
जो हर बार ही दे जाते हैं-
असहनीय दुःख,
रिसती हुई पीडा,
टूटते हुए सपने,
अनवरत बहते अश्क
और मैंने---
मैंने खुद को मिटाया है
इन रिश्तों की खातिर।
पर इन्होंने सिर्फ--
कुचला है मेरी भावनाओं को,
रौंद डाला है मेरे अस्तित्व को,
छलनी कर डाला है मेरे दिल को।
लेकिन ये मेरा दिल है कोई पत्थर नहीं---
अनेक भावनाओं से भरा दिल
इसमें प्यार का झरना बहता है,
सबके दुःखों से निरन्तर रोता है,
बिलखता है, सिसकता है
और उनको खुशी मिले
हरदम यही दुआ करता है।
पर उनका दिल ,दिल नही
पत्थरों का एक शहर है
जिसमें कोई भावनाएं नही
बस वो तो तटस्थ खडा है
पर्वत की तरह
उनके दामन को बहारों से भर दो
तो भी उनको कोई फर्क नहीं पडता।
मैं हर बार हार जाती हूँ इन रिश्तों से
पर,फिर भी हताश नहीं होती
फिर लग जाती हूँ इनको निभाने में
इस उम्मीद से कि कभी तो सवेरा होगा
कभी तो ये पत्थरों का शहर
भावनाओं का शहर होगा
जिसमें मेरे लिए भी
अदना -सा ही सही
पर इक मकां होगा।
-0-

डॉ० भावना कुँअर

Friday, June 15, 2007

शिक्षा

भाषा एक संस्कार

- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

एक पुरानी कथा है । एक राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया । शेर का पीछा करते करते बहुत दूर निकल गया। सेनापति और सैनिक सब इधर उधर छूट गए। राजा रास्ता भटक गया। सैनिक और सेनापति भी राजा को खोजने लगे।सभी परेशान थे। एक अंधा भिखारी चौराहे पर बैठा था। कुछ सैनिक उसके पास पहुँचे। एक सैनिक बोला 'क्यों बे अंधे ! इधर से होकर राज गया है क्या?'
'नहीं भाई !' भिखारी बोला। सैनिक तेजी से आगे बढ गए।
कुछ समय बाद सेनापति भटकते हुआ उसी चौराहे पर पहुँचा।उसने अंधे भिखारी से पूछा 'क्यों भाई अंधे ! इधर से राज गए हैं क्या?'
'नहीं जी, इधर से होकर राजा नहीं गए हैं ।'
सेनापति राजा को ढूँढने के लिए दूसरी दिशा में बढ़ ग़या।

इसी बीच भटकते-भटकते राजा भी उसी चौराहे पर जा पहुँचा। उसने अंधे भिखारी से पूछा - 'क्यों भाई सूरदास जी ! इस चौराहे से होकर कोई गया है क्या?'
'हाँ महाराज ! इस रास्ते से होकर कुछ सैनिक और सेनापति गए हैं।'
राजा चौंका - 'आपने कैसे जाना कि मैं राजा हूँ और यहाँ से होकर जाने वाले सैनिक और सेनापति थे ?'
'महाराज ! जिन्होंने 'क्यों बे अंधे' कहा वे सैनिक हो सकते हैं। जिसने 'क्यों भाई अंधे' कहा वह सेनापति होगा। आपने 'क्यों भाई सूरदास जी !'कहा.आप राजा हो सकते हैं।आदमी की पहचान उसकी भाषा से होती है और भाषा संस्कार से बनती है। जिसके जैसे संस्कार होंगे, वैसी ही उसकी भाषा होगी ।

जब कोई आदमी भाषा बोलता है तो साथ में उसके संस्कार भी बोलते हैं। यही कारण है कि भाषा शिक्षक का दायित्व बहुत गुरुतर और चुनौतीपूर्ण है। परम्परागत रूप में शिक्षक की भूमिका इन तीन कौशलों - बोलना, पढ़ना और लिखना तक सीमित कर दी गई है। केवल यांत्रिक कौशल किसी जीती जागती भाषा का उदाहरण नहीं हो सकते हैं। सोचना और महसूस करना दो ऐसे कारक हैं जिनसे भाषा सही आकार पाती है। इनके बिना भाषा गूँगी एवं बहरी है, इनके बिना भाषा संस्कार नहीं बन सकती, इनके बिना भाषा युगों-युगों का लम्बा सफर नहीं तय कर सकती; इनके बिना कोई भाषा किसी देश या समाज की धड़कन नहीं बन सकती। केवल सम्प्रेषण ही भाषा नहीं है। दर्द और मुस्कान के बिना कोई भाषा जीवन्त नहीं हो सकती। सोचना भी केवल सोचने तक सीमित नहीं । सोचने में कल्पना का रंग न हो तो क्या सोचना। कल्पना में भाव का रस न हो तो किसी भी भाषा का भाषा होना बेकार। भाव ,कल्पना और चिन्तन भाषा को उसकी आत्मा प्रदान करते हैं।

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भाषा-शिक्षक खुद ही पूरे समय बोलता रहे,यह शिक्षण की सबसे बडी क़मजोरी है। प्रायः यह देखने में आता है कि बहुत से बच्चों को वर्ष में एक बार भी भाषा की कक्षा में बोलने का अवसर नहीं मिल पाता है। बिना बोले भाषा का परिष्कार एवं संस्कार कैसे हो सकता है? बच्चों के आसपास का संसार बहुत बड़ा एवं व्यापक है। दिन भर बहुत कुछ बोलने वाले वाले बच्चों को कक्षा में मौन धारण करके बैठना पड़ता है। यह किसी यातना से कम नहीं। बच्चों के भी अपने कच्चे-पक्के विचार हैं । उन्हें अभिव्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए। अभिव्यक्ति का यह अवसर ही भाषा को माँजता और सँवारता है। 'खामोश पढ़ाई जारी है' की स्थिति भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं है। हमें इस प्रवृत्ति में बदलाव लाना पडेग़ा। दुनिया के अधिकतर झगड़े भाषा के गलत प्रयोग,गलत हाव-भाव के कारण पैदा होते हैं। बिगड़े सम्बन्ध भाषा के सही प्रयोग से सुलझ भी जाते हैं। बहुत से 90 प्रतिशत अंक पाने वाले बच्चे भी कमजोर अभिव्यक्ति के चलते अपनी बात सही ढंग से नहीं कह पाते। अतः आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि बच्चें को बोलने का भरपूर मौका दिया जाए ; तभी अभिव्यक्तिकौशल में निखार आएगा।
छोटी कक्षाओं से ही इस दिशा में बल दिया जाना चाहिए। संवाद, समूह-गान एकालाप, कविता पाठ, कहानी कथन, दिनचर्या-वर्णन के द्वारा बच्चों की झिझक दूर की जा सकती है।
पाठ्य-पुस्तकें केवल दिशा निर्देश के लिए होती हैं .उन्हें समग्र नही मान लेना चाहिए। अतिरिक्त अध्ययन के द्वारा भाषा की शक्ति बढाई जा सकती। बच्चों को निरन्तर नया पढ़ने के लिए प्रेरित करना जरूरी है। यह तभी संभव है, जब शिक्षक भी निरन्तर नया पढ़ने की ललक लिए हुए हों।

भाषा के शुद्ध रूप का बच्चों को ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए निरन्तर अभ्यास जरूरी है। अशुद्ध शब्दों का अभ्यास नहीं कराना चाहिए। कुछ शिक्षक अशुद्ध शब्दों को लिखवाकर फिर उनका शुद्ध रूप लिखवाकर अभ्यास कराते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। बच्चों को दोनों प्रकार के शब्दों का बराबर अभ्यास हो जाएगा। वे सही और गलत दोनों का समान अभ्यास करने के कारण शुद्ध प्रयोग करने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। संशोधित किये गए सही शब्दों की सूची अलग से बनवानी चाहिए.इससे यह पता चल सकेगा कि कौन छात्र किन -किन शब्दों की वर्तनी गलत लिखता रहा है। निर्धारित अन्तराल के बाद वर्तनी की अशुद्धियों में क्या कमी आई है। श्रुतलेख के माध्यम से अशुद्धियों में आई कमी का आकलन किया जा सकता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि सभी कौशलों का निरन्तर अभ्यास भाषा को प्रभावशाली बनाने की भूमिका निभा सकता है।
o रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय

आयुध उपस्कर निर्माणी, हजरतपुर
जि0 फिरोजाबाद ( उ0प्र0)283103














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नहीं मिला


ज्ञानेन्द्र ‘साज़’

ढूँढा किए जिसे वो उमर भर नहीं मिला
चलता रहा मगर तो सफर पर नहीं मिला ।
जब से उधार ले गया वह हमसे माँगकर
चक्कर पे चक्कर काटे पर घर पर नहीं मिला ।
छत पर किसी से बात में मशगूल था इतना
कितना पुकारा नीचे उतर कर नहीं मिला ।
वह मिलना चाहता था अपने समाज से
दहशतज़दा था इस कदर डरकर नहीं मिला ।
महफ़िल में उसकी हम गए फिर भी वो ऐंठ में
बैठा ही रहा हमसे वो उठकर नहीं मिला ।
कैसा अजीब दौर है ऐ दोस्त क्या कहूँ
दिल भी मिलाया था मगर दिलबर नहीं मिला ।
होली हो, ईद हो मगर ये देखिए कमाल
जो भी मिला गले से , वह खुलकर नहीं मिला ।
हुआ जवान तो हिस्से की बात को लेकर
बचपन के जैसा ,भाई भी हँसकर नहीं मिला।
मन्दिर में,मस्ज़िदों में,गिरजों में कहीं भी
ढूँढा तो बहुत था कहीं ईश्वर नहीं मिला ।
कुण्ठित है मगर जी रहे हैं फिर भी शान से
हमको किसी के धड़ के ऊपर सर नहीं मिला ।
रहज़न मिले,लुटेरे मिलें नक़बज़न मिले
ऐ साज़ मेरे देश को रहबर नहीं मिला ।

Saturday, June 9, 2007

मरुस्थल के वासी



श्याम सुन्दर अग्रवाल





गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’
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रिश्ता


डा श्याम सुन्दर 'दीप्ति'


"मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।" कहकर रामसिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहालसिंह ने अपना गाँव नजदीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राइवर के पास जाकर धीमे से बोला, "डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।"
"क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?" ड्राइवर ने खीझकर कहा।
"अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।" निहालसिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहालसिंह को देखा और फिर उसने भी धीमे से कहा, "मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।"
निहाले ने जरा रुककर कहा,"तो क्या हुआ? सिख भाई हैं हम, वीर [भाई] बनकर रोक दे।"
ड्राइवर इस बार जरा-सा मुसकाया और बोला, "मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।"
"तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए हो। आदमी ही आदमी की दवा होता है। इससे बड़ा भी कुछ है।"
जब निहाले ने इतना कह तो ड्राइवर ने खूब गौर से उसको देखा और ब्रेक लगा दी।
"क्या हुआ?" कंडक्टर चिल्लाया, "मैंने पहले नहीं कहा था? किसलिए रोक दी?"
"कोई नहीं, कोई नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।" ड्राइवर ने कहा और निहालसिंह तब तक नीचे उतर गया था।
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Sunday, June 3, 2007

अधर पर मुस्कान

अधर पर मुस्कान दिल में डर लिये

लोग ऐसे ही मिले पत्थर लिये।

आँधियाँ बरसात या कि बर्फ़ हो

सो गये फुटपाथ पर ही घर लिये।

धमकियों से क्यों डराते हो हमें

घूमते हम सर हथेली पर लिये।

मिल सका कुछ को नहीं दो बूँद जल

और कुछ प्यासे रहे सागर लिये ।

हार पहनाकर जिन्हें हम खुश हुए

वे खड़े हैं सामने पत्थर लिये ।


..............

कितनी बड़ी धरती

कितनी बड़ी धरती ,

बड़ा आकाश है !

बाँट दूँ वह सब ,

जो मेरे पास है

बहुत दिया जग ने

मैंने दिया कम ।

कैसे चुकाऊँ कर्ज़

इसी का है ग़म ।

अपने या पराए कौन ,

यह आभास है ।

…………

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

19मार्च 07