प्रेम गुप्ता ‘मानी’
1- चुप्पी की हिंसा
उन स्त्रियों के बारे में
लिखी जानी चाहिए कुछ पंक्तियाँ,
जो अपने ऊपर उठे
पति के हाथ को
तोड़ देना चाहती हैं,
जो दूसरी औरतों को
ललचाई नज़रों से ताकते
अपने पति की आँखों को
फोड़ देना चाहती हैं
जो, पति
के ऑफिस जाते ही
ढूँढती हैं, बेसब्री से
उनकी अलमारी में
छुपी हुई फाइलों के बीच
उनकी तल्खियाँ
और पति की कमीज़ के
टूटे बटनों को टाँकती
सुई की चुभन
अपनी आत्मा तक महसूस करती हैं;
उन स्त्रियों के लिए भी
जलनी चाहिए कुछ मोमबत्तियाँ
जो लाश में तब्दील हुए बिना भी
जीती हैं- एक मुर्दा ज़िंदगी;
उन स्त्रियों के लिए भी
होनी चाहिए एक क्रांति
जिनकी सोच बरसों से दफ़न हैं
एक अदृश्य क़ब्र के नीचे
इस अँधेरी
गुफा से
उन स्त्रियों को बाहर निकालने के लिए
आगे आना चाहिए
उन स्त्रियों को,
जो क़ब्र से बाहर हैं
और खुली हवा में साँस ले रही हैं
अपने दम पर छू रही हैं-
आसमान
उन स्त्रियों के लिए
जो केवल धरती पर हैं
और
सदियों से खुद धरती बन गई हैं
उनके लिए भी
एक आवाज़ उठनी चाहिए
कि-
धरती से ऊपर एक आसमान भी है
जिसे
अपने पंख फैलाकर
वे छू भी सकती हैं
उन स्त्रियों को
जो अपने वजूद को भूल चुकी हैं
उन्हें बताना चाहिए
कि
हाथ उठाने वाले,
स्त्रियों की अस्मत से खेलने वाले
मर्दों को
उन्होंने ने ही जन्म देकर
धरती पर खड़ा होने लायक बनाया है
और
आसमान पर उड़ना सिखाया है
जिस दिन वे चाहेंगी
उनके पंख छीनकर
उन्हें किसी लायक नहीं छोड़ेंगी...।
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2-एक समन्दर - माँ के अन्दर
माँ के भीतर
एक बहुत बड़ा समन्दर था
माँ,
नहीं जानती थी,
पर हम भाई-बहन
वहाँ खूब धमा-चौकड़ी करते
कभी घुटनों तक पानी में उतर जाते
तो कभी आती-जाती लहरों को
भाग-भागकर थका डालते
कभी
गीली...गुनगुनी रेत का
घरौंदा बनाते
और फिर झगड़कर तोड़ देते
समन्दर के किनारे बिछी ढेरों रेत से
हम सीपियाँ इकट्ठी करते,
उन्हें खोलते...कुरेदते
सीपी के अंदर बंद कोई
धीरे से चिहुँकता
हम नहीं जानते थे
कि वह चिहुँकन माँ की थी
हम उस चिहुँकन को भूल
समन्दर में फिर ठिठोली करते
एक युग जैसे
समन्दर के सामने टँगे सूरज का
मुँह चिढ़ाता
और,
हमें किसी और की तलाश थी
माँ के समन्दर की मछलियाँ
कभी दिखी नहीं
पर हम माँ से अक्सर पूछते
“हरा समन्दर...गोपीचन्दर
बोल मेरी मछली...कित्ता पानी?"
माँ की सूनी आँखों में
पूरा-का-पूरा समन्दर उतर जाता
और उसकी गहराई में
बसी धरती
पानी के नर्म अहसास के बावजूद
पूरी तरह चटक जाती
पर हम
उसकी चटकन से बेख़बर
उसके छिछले तट पर ही अठखेलियाँ करते
थक-हारकर माँ
समन्दर को धीरे से
तलहटी में उतार देती;
ताकि उसके बच्चे खेल सकें
एक मासूम सा खेल...।
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3- हथेलियों का सौदा
दादी माँ
तुम्हें
सम्बोधित है यह कविता
क्योंकि
बरसों पहले
तुम्हीं ने
सम्बन्धों की
ठोस ज़मीन पर
एक ‘घर’
बनाया था
और अपनी मजबूत
हथेली पर
धरी थी उसकी
नींव
दादी माँ
याद है तुम्हें
वह आँगन ?
जिसके बीचो-बीच तुमने
तुलसी-चौरा
बनाया था
और रोज सुबह
सूरज के दातुन
करने से पहले ही
तुम उसे
नहला-धुलाकर
फूल-फल का
अर्ध्य देकर
सजा-सँवार देती
थी
दादी माँ
वह तुलसी अब बड़ी
हो गई है
उस छोटे से आँगन
में,
जिसकी ज़मीन दरक
गई है
और दीवारों का
प्लास्टर उखड़ गया है,
तुलसी के पाँव
नहीं समाते
दादी माँ
देखो तो सही
जिस नन्हीं सी
तुलसी को तुमने रोपा था
आँगन उसी के लिए
छोटा पड़ गया
दादी माँ,
क्या तुम नहीं
जानती थी कि
खंडहरों में
तुलसी कभी नहीं पुजती?
हाँ दादी माँ...
तुम्हारी बूढ़ी
हथेलियों की तरह ही
घर की नींव पर
भी दरारें ही दरारें हैं
दादी माँ
इस तरह चुप
क्यों हो ?
स्वर्ग के सारे
सुख पाकर
और नरम बिछौने
पर सोकर
क्या तुम भूल गई?
दादी माँ- क्या
तुम्हें दुःख नहीं?
तुम्हारी तुलसी
बेघर हो गई है
और घर की एक-एक
ईंट
टुकड़े-टुकड़े बँट
रही है
दादी माँ- सोचो
इन बँटे टुकड़ों
को जोड़कर
एक बार फिर
घर बनाने के लिए
क्या तुम
अपनी हथेली नहीं
दे सकती?
-0-प्रेम गुप्ता ‘मानी’, एम.आई.जी-292,कैलाश विहार, आवास
विकास योजना सं-एक,
कल्याणपुर, कानपुर-208017(उ.प्र)
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