विजय जोशी
( पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू
सो तेहि मिलहि न कछु संदेहु
धर्म
कोई शिष्टाचार रूपी पाखंड का प्रतिरूप नहीं है; इसीलिए तो शास्त्रों में उसकी तदनुसार व्याख्या
भी की गई है - धारयति इति धर्मम् अर्थात् जो भी धारण करने योग्य है, वह धर्म है। आदमी जब बड़ा होता है, तो दूसरों को तुच्छ तथा स्वयं को श्रेष्ठ न माने। यह मूल तत्त्व है।
वस्तुत: उसे तो ईश्वर का आभारी होना चाहिए कि उसे सेवा का अवसर प्राप्त हुआ।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छांड़िये, जब
लग घट में प्राण।
धीर
गंभीर राम के मन में प्रजाजनों के लिये दया कूट कूट कर भरी हुई थी;
इसीलिए उन्हें दया निधान भी कहा गया है। उन्होंने कभी भी सेवकों को आहत नहीं किया; वरन अपनी आकांक्षा को दबाकर उनका मान रखा। उनकी दृष्टि में तो न कोई छोटा
है और न कोई बड़ा। न कोई नीच और न कोई उच्च। शबरी एवं केवट इसके साक्षात् उदाहरण
हैं। वन गमन के दौरान जब वे गंगा तट पर आए, तो नदी पार करने
हेतु उन्हें नाविक की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने
केवट से निवेदन किया, लेकिन उन्हीं के भक्त केवट ने
प्रथम दृष्ट्या उनका अनुरोध स्वीकार नहीं किया
माँगी नाव न केवटु आना
कहई तुम्हार मरमु मैं जाना
चरन कमल रज कहुं सबु कहई
मानुष कराने मूरि कछु अहई
केवट
ने कहा -आपकी चरण धूल से तो अहल्या पत्थर से स्त्री हो गई थी। फिर मेरी नाव तो काठ
की है एवं मेरी आजीविका का एकमात्र सहारा ते। यदि यह स़्त्री हो गई, तो मैं जीवन निर्वाह कैसे करूँगा। प्रसंग बड़ा ही मार्मिक था। केवट ने आगे
कहा कि जब तक मैं आपके पैर पखार न लूँ, नाव नहीं
लाऊँगा। राम बात का मर्म समझ गए और सेवक की बात शिरोधार्य करते हुए बोले -
कृपासिंधु बोले मुसुकाई
सोई करूँ जेहिं तव नाव न जाई
बेगि आनु जब पाय पखारू
होत विलंबु उतारहि पारू
बात
का महत्त्व देखिए जिनके स्मरण मात्र से मनुष्य भवसागर पार उतर जाते , जिन्होंने 3 पग में पूरे ब्रह्मांड को नाप
लिया था, वे ही भगवान केवट जैसे साधारण मनुष्य को
निहोरा कर रहे हैं और अब आगे देखिए, यह सुन केवट के मन में
कैसे आनंद की हिलोरें आकार लेने लगीं और वह चरण पखारने लगा।
अति आनंद उमगि अनुरागा
चरण सरोज पखारन लागा
पार
उतारकर केवट ने दण्डवत्प्रणाम किया और जब राम की इच्छा जान सीता ने उतराई स्वरूप रत्नजड़ित अँगूठी देने का
प्रयास किया, तो उसने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया और कहा - आज मेरी दरिद्रता की आग
बुझ गई है। मैंने बहुत समय तब मजदूरी की और विधाता ने आज भरपूर मजदूरी दे दी है।
हे नाथ आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरे
दीनदयाल अनुग्रह चौरे
फिरती बार मोहिजो देबा
सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा
मित्रो!
यही है दया का सच्चा स्वरूप, जो प्रेम में परिवर्तित हो सारे
भेद मिटा देता है। आदमी के मन में गहरे उतरकर दिल को दिल से जोड़ देता है। न कोई
लेन देन, न कोई स्वार्थ केवल निर्मल, निस्वार्थ प्रेम। सारे धर्मों का यही संदेश है
अत्याचारी कंस बन मत ले सबकी जान
दया करे गरीब पर वो सच्चा बलवान।