पथ के साथी

Saturday, December 4, 2021

1163

 

 ज़िन्दगी- प्रीति अग्रवाल


ये नज़र, जाए जहाँ तक, सब धुँआ- सा लग रहा
इस शहर में, हर कोई, क्यों, लापता- सा लग रहा

खोए- खोए हैं सभी, हर शख़्स ही हैरान है
अमन ओ चैन का यहाँ, न नाम, और निशान है

शून्य आँखों में बसा है, सूरतों पर है थकान
दिल हैं झोंपड़ी से, आलिशान, ऊँचे हैं मकान

बेतहाशा दौड़ता, हर आदमी बेहाल है
बेलगाम ख़्वाहिशों का, यह सुनहरा जाल है

किस मोल पर है क्या मिला, ये सोचता, कोई नहीं
मंज़िलों की चाहतों में, खो रहे, खुद को सभी

यूँ तो सब के पास सब है, वक़्त की बस, है कमी
सांस केवल चल रही हो, ज़िन्दगी, ये तो नहीं

कल की रट में आदमी, है आज को झुठला रहा
जो भी है, बस आज है, न समझ, न समझा रहा

बेखबर को जब खबर होगी, कि जीवन क्यों मिला
सांझ करती होगी रस्ता, रात आने के लिए

इक दफा जो रात ने, अपना ठिकाना कर लिया
आएगा 'कल', या न आए, कोई न बतला सका

जो है तेरे पास, ले आनन्द, उसे सम्मान दे
'और' की रट छोड़, जो है, वो बहुत, ये मान ले

कल नहीं है, वो न आएगा कभी, तू जान ले
जो है केवल 'आज' ही है, जान और पहचान ले

कल की रट को छोड़, तू, इस दिन की डोरी थाम ले
जो है, वो ही है बहुत, इस बात को, तू मान ले!!

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