पथ के साथी

Friday, April 26, 2013

उड़कर नहीं देखा


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
बीती हुई बातों से बिछुड़कर नहीं देखा ,
क्यूँ पास में थे पंख फिर उड़कर नहीं देखा ।
वो प्यास से तड़पा बहुत ,शहरी गुरूर में ,
था गाँव में पनघट, मगर मुड़कर नहीं देखा ।
कुछ भी कठिन नहीं था,रही इक भूल हमारी ,
बस एक ने भी एक से जुड़कर नहीं देखा ।
बेपर्दगी , गुरबत का दर्द झेलना पड़ा ,
जब पाँव ने चादर में सिकुड़कर नहीं देखा ।
ये नफरतों की आग बुझे भी तो किस तरहा ,
आँखों के समंदर ने निचुड़कर नहीं देखा ।
12-04-2013