मुक्तक
बघनखे पहनए हुए, पुरोहित अपने गाँव के ।
शूल अब गड़ने लगे हैं अधिक अपने पाँव के ।
दूर तक है रेत और गर्म हवा के थपेड़े
यहाँ पहुँच झुलसे सभी साथी ठण्डी छाँव के ।-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
बघनखे पहनए हुए, पुरोहित अपने गाँव के ।
शूल अब गड़ने लगे हैं अधिक अपने पाँव के ।
दूर तक है रेत और गर्म हवा के थपेड़े
यहाँ पहुँच झुलसे सभी साथी ठण्डी छाँव के ।-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'