पथ के साथी

Sunday, February 21, 2021

1054-क्षणिकाएँ

 

कृष्णा वर्मा

1

कैसा आत्मीय रिश्ता है

उदासियों का स्मृतियों से

तेरा ख़्याल आते ही

झट से पसर जाती हैं

आँखों के सहन में। 

2

बड़ी ग़ज़ब होती है

यादों की तासीर

भीग-भीग जाते हैं हम

भरी सरदी में।

3

दिल की गलियों में

गश्त लगाते है

जब तेरे ख़्याल

जलने लगते हैं

यादों की मुँडेरों पर

उल्फ़त के चिराग़।

निगोड़े ख़्वाबों को

क्यूँ पसंद होती है सिर्फ़

अल्हड़ उम्र की नींद

काश!

उनकी फ़ितरत में होता

उथली नींद में भी तैरना।

5

जीवन नाव पे

हुए हैं सवार 

तो कैसा ग़म

उसकी रज़ा 

जिस किनारे 

चाहेगा उतारना

उतर जाएँगे 

चुपचाप हम। 

6

चहरे की शिकन पर

वक़्त की तहरीरें

बयान करती हैं

तजुर्बों की पायदारी।

7

पुख़्ता होते हैं

नीतिवान

कभी ख़ुद को नहीं करते

हवाओं के सुपुर्द।

8

ख़ुद कहाँ मरता है

इंसान

लोगों के अल्फ़ाज़ और रवैये

जीने नहीं देते उसे।

9

ज़िंदगी के सफ़र में

शर्तें और ज़िदें 

सिकोड़ देती हैं

ख़ुशियों का आसमान।

10

सुलग गईं तो

मोड़के रख देंगी रुख़

कौन मना पाया फिर

सिरफिरी हवाओं को। 

11

सब्ज़ पत्तों पे

नुक़्ता ए ज़र्द

देने लगी है आहट

मौसम के बदलते

मिजाज़ की।

12

बीते रिश्तों के

मिठास की तासीर

जीवित रखती है

आस मिलन की।

13

कैसा ये कहर बरपा

अपनों से जुदा होके

जिए जा रहे हैं लोग

किश्तों में मर-मरके।

14

कह दो कोई जाके

मौसम की ख़ुशगवारी से

न गाएं हवाएं

मुहब्बत के तराने

कैद है आज ज़िंदगी

गुनाहों की ज़द में।

15

चाह कर भी समंदर

छीन नहीं पाता

लहरों का हक

डोलती हैं प्यार से

पकड़कर

हवाओं का हाथ

पूरब कभी पश्चिम के

तट पर।

16

दोस्तों के दिल में

मिली पनाह

किसी जन्नत से

कम नहीं होती।

17

शक हो या मुहब्बत

किसी भी सूरत में

बेकसूर नींदें ही

होती हैं हराम।

18

लाख डूबें अँधेरे

उजालों में

चाहकर भी

बदल नहीं पाते हैं

फ़ितरत का रंग।

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