1-घर
-सुभाष लखेड़ा
अभी अधिक वक़्त नहीं बीता
जब इंसान घरों में रहता था
धीरे - धीरे वह तरक्की करता गया
घरों को छोड़ उड़ने लगा
धरती के इस छोर से उस छोर तक
इस प्रक्रिया में उसके घर
कब घोंसलों में तब्दील हुए
उसे इस बात का पता ही न चला
घर, घर न रहा कोई बात नहीं
परेशानी तो इस बात से है
प्रगति की इस दिशाहीन दौड़ में
नारी "नारी" न रही; नर " नर
" न रहा
पक्षियों के बच्चों की तरह
उड़ने लगे अब इंसानी बच्चे भी
बाप को " डैड " - माँ को "ममी" बना
इन्होने जो अपना सपना बुना
वह " हम दो " को मानता है
संतान की कोई जरूरत नहीं उन्हें
वे भी उड़ेंगे, वे जानते हैं
शुक्र है अभी दुनिया में
सभी ने ऐसी तरक्की नहीं की
उनके घर अभी घोंसले नहीं बने
उनके बच्चों ने अभी ऐसे सपने नहीं बुने !
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2-रहस्य-- सीमा स्मृति
हर क्षण होठों पर सिमटी
मुस्कराहट
के पीछे
क्या आपने देखी है-
बनावट की मोटी परत
क्या महसूस की है, चुभती कड़वाहट
दर्द की एक सिहरन
झड़ती पपडि़याँ ईर्ष्या की
क्या पढ़ पाए हैं आप
दबे इक डर में
सोखती जीवन की महक को
जरा सुनिए
मुस्कराहट
-भरे शब्ब्दों में
बेसुध अहं की गूँज ।
देखना चाहते हैं
जानना चाहते हैं
इस मुस्कराहट के रहस्य को
ले आइये आईना
और
सुनिये, क्या कहता है
‘खुदा’ होने का दावा करता इंसान
भूल इंसानियत की राह
अहम् के गुबार में लिप्त
बेपरवाह! बेखबर! बेरहम!
देख जिसे आईना भी मुस्कराता है
और
चटक कर बिखर जाता है।
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