पथ के साथी

Monday, January 13, 2025

1445

 

लौट आओ 

    - सुशीला शील स्वयंसिद्धा

 

 

 त्योहारों की रौनको 

 लौट आओ !

 कितनी सूनी है मन की गलियाँ 

 बरसों से नहीं चखी 

लोकगीतों की मिठास 

सूनी सी आँखें 

पलक -पावड़े बिछाए हैं 

कभी तो दिखेंगी

हँसती-गाती-नाचती-हुलसती 

हुड़दंग करती बच्चों की टोलियाँ 

 

 यादों में तैर-तैर जाते हैं दूल्हा- भट्टी 

 जीभ पर अनायास 

 आ विराजती है गुड़ की पट्टी 

 संग चली आती हैं गज्जक-रेवड़ियाँ 

 टप्पे-बोलियाँ 

 सुंदर मुंदरिये संग 

 झूमते टीके-बालियाँ 

 थिरकती पायल 

 खनकती चूड़ियाँ 

 मचलते परांदे 

हँसती फुलकारियाँ 

चहक उठती हैं 

नचदी कुड़ियाँ -

सानू दे दे लोहड़ी 

तेरी जीवै जोड़ी 

 

 

 लोहड़ी की आग और रेवड़ियों से 

 बिछड़ गए हैं उपले 

 चली आई हैं थोक में लकड़ियाँ 

 कहाँ दे पाती हैं उपले जैसी 

 धीमी आँच और तपन 

 जिनको थापते-सुखाते 

 होते थे स्नेहिल जतन 

 

 

महीनों के त्योहार

सिमट गए हैं चंद घंटों में 

खो गए हैं चूल्हे-भट्टी  

कड़ाहियों में पकती गजक-पट्टी 

माँ के हाथों की मिठास 

दुकानों के सौदों में खो गई है 

तरक़्क़ी करते-करते 

जिंदगी कितनी फ़ीकी हो गई है

 

 

 त्योहारों की रौनको 

ओ ढोल ओ ताशो !

ओ उत्साह ओ उल्लास 

ओ तन मन का हुलास 

लौट आओ !

लौट आओ ! !

-0-

Saturday, January 11, 2025

1444-मैं चला जाऊँगा

  रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

मैं चला जाऊँगा

बहुत दूर

चाँद और सूरज से परे

अब लौट न पाऊँगा।

फिर भी

कभी हवा बनके

कुछ खुशबू ,

तुम्हारे आँगन में

बिखरा जाऊँगा।

 

ताप जब तुम्हें सताए

मैं बनके बदरा

बरस जाऊँगा,

पर मैं लौट न पाऊँगा।

 

शर्तों में नहीं जिया;

इसलिए

केवल विष ही पिया

सुकर्म भूल गए सब

दूसरों के पापों का बोझ

मैंने अपने ऊपर लिया

जी-जीके मरा

मर-मरके जिया।

 

ऐसा भी होता है

जीवन कि

मरुभूमि में चलते रहो

निन्दा की धूल के

थपेड़े खाकर

जलते रहो ।

जिनसे मिली छाँव

वे गाछ ही  छाँट दिए

जिन हाथों ने दिया सहारा

वे काट दिए

ऐसे में मैं कैसे आऊँगा ?

कण्ठ है अवरुद्ध                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

गीत कैसे गाऊँगा ?

मैंने  किया भी क्या ?

जो दुःखी थे

उनको और दुःख दिया

मेरे कारण औरों ने भी

ज़हर ही पिया

सबका शुक्रिया!

Wednesday, January 1, 2025

1443

1-करो स्वागत

सुदर्शन रत्नाकर

 


बीत रहा है धीरे-धीरे

अस्तित्वहीन होता वर्ष

उखडी-उखड़ी -सी साँसें हैं

उदासी है छाई,

कहीं नहीं है हर्ष।

मौसम में नमी है

धूप भी अलसाई है

थके- थके दिन हैं,

रातों में ठंडाई है।

जीवन में उत्साह नहीं

बिछुड़ने की परवाह नहीं।

जा रहा है, तो जाने दो

जाने दो साथ में

सालभर की नकारात्मक

 सोच को

पाँवों में चुभे शूलों को

अपनी की हुई भूलों को।

विरोधियों की आवाज़ को

सड़ी -गली मान्यताओं को

पोंछ दो दर्पण पर पड़ी धूल को

जिसमें दिखाई नहीं देता

अपना ही असली चेहरा।

 

नए वर्ष का अभिनंदन करो

पुराने को भूल जाओ

नव उमंग, नव क्रांति

मिटाकर मन की भ्रांति

करो स्वागत, उगती नव किरणों का

फैला दें जो उजास

नव आशाओं का।

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2-पाहुन/-शशि पाधा

 

द्वारे इक पाहुन है आया

सुख सपनों की डलिया लाया 

 

आशाओं की हीरक मणियाँ 

विश्वासों की झिलमिल लड़ियाँ 

प्रेम-प्यार के बन्दनवार

सजी-सजी हर मन की गलियाँ 

 

मंगल दीप जलें देहरी पर

किरणों ने नवरंग बिखराया

 दूर दिशा से पाहुन  आया 


नया सवेरा, नई ऊषा में

जीवन की उमंग नई

समय की धारा के संग बहती

जीवन की तरंग नई


राग रंग से रंगी दिशाएँ

इन्द्र धनु से थाल सजाया

  नव वर्ष द्वारे है आया 

          

धरती ,सागर, नदिया पर्वत

स्वागत’ ’स्वागत’ बोल रहे

आगत के कानों में पंछी

नव कलरव रस घोल रहे

  रोम-रोम बगिया का पुलकित

   सृष्टि ने नवगीत है गाया

  नव पाहुन द्वारे पर आया।

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3-नववर्ष!

डॉ.सुरंगमा यादव

इक्कीसवीं सदी अबचौबीस बरस की हो ली

पच्चीसवें    वसंतीसपनों ने   आँखें खोलीं

खोने की है कसक  तोपाने का सुकूँ भी है

छूने को आसमाँ हैमन में  जुनून भी है

नववर्ष तू  दिलों मेंसंकल्प ऐसा भरना

मुट्ठी में कर लें सागर,मन में गुमान हो ना।