एक
ने दूजे से कहा-
जीवन की डोर का क्या ?
कब
समाप्त हो जाए ?
दूसरे
ने कहा- सही बात है
मगर
मैं तो सदा यहीं रहूँगा
सृष्टि
के कण- कण में
तुम्हारे
बिल्कुल क़रीब
मुझे
देख सकोगे, कभी फूल देखोगे,
तो
उनमें मुस्काता,
महकता
नज़र आऊँगा
कभी
सूर्य की किरणें बनकर
तुम्हारे
चेहरे को छू लूँगा
और
चेहरे पर अरुणाभा बनके
बिखर जाऊँगा।
कभी
सरसराती हवा का झोंका बनकर
तुम्हारे
इर्द-गिर्द
मँडराया करूँगा
और
हौले से छेड़ जाया करूँगा
गुदगुदी
करके बारिश के मौसम में
कानों
में सरगोशी करके
रचूँगा बचे हुए
कई ग्रन्थ,
जब
बूँदे पड़ेंगी मिट्टी पर
उनसे
मेरे तन की
महक
आएगी तुम्हें ,
अपनी साँसों
के क़रीब ही
महसूस
करोगी मुझे।
सृष्टि
के कण-कण में
मेरे ही तत्व घूमा करेंगे..
तुम्हारे
वजूद के आसपास ।
मैं
तुम्हारे शब्दों में लिखा जाऊँगा
जाने
कितने विचार
मुझसे
होकर गुज़रेंगे
तुम्हारे
मानस- पटल तक पहुँचेंगे
जब-जब
शब्दों की माला
गुम्फित
होकर सबको
महकाएगी
मैं
अनन्त छोर से मुस्काकर
ओंस
बनकर बरसूँगा
चूमने
को तुम्हारे
कलात्मक, नीलदेवी
अनुकम्पित
हाथ।
हर
दृश्य में मैं समा जाऊँगा
बोलो
मुझसे कहाँ तक
बच
पाओगे भला?
मैं
तो पंच तत्व से निर्मित हूँ
बिखर
कर फैल जाऊँगा हर जगह पर,
तुम
मुझे भूल ही नहीं सकते
शब्दों
से शब्दों का अटूट
नाता
है, ये जानते हो
तो
भविष्य का सोचकर कोई
भी
शोक क्यों ?
जो
चीज़ सदा ही पास रहनी है
उसकी
चिंता ही क्यों ?
मैं
अमर हूँ,अजर हूँ क्योंकि
पंच
तत्व में विलीन हूँ
मुझे महसूस करोगे,
तो स्वयं के निकट ही पाओगे।
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