1-फूल लोढ़ती साँझ
शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
नदी किनारे कुहरे से मिल
चुपके -चुपके
शाल ओढ़ती साँझ।
शब्दकोश की कुंजी में धर
अनुवादों का चंदन,
सौम्य नम्रता का अनुशीलन
श्लेषों का अभिनंदन,
वन-विद्या के खेतों में अब
कजरी गाकर
धान रोपती साँझ ।
भावभूमि की विविधाओं का
अभिनव अरुण विवेचन,
स्वर सप्तक ध्वनियों से सँवरा
लय का लयक निकेतन,
लीप पोतकर दीवारों को
दरवाज़ों की
धूल पोंछती साँझ।
जनवादी इन गलियों के कल
विकसित नये शहर में,
भूख-प्यास की दाहकता की
उठती हुई लहर में,
मन के संघर्षों से कुछ कह
गांधी आश्रम
रुई ओटती साँझ।
उस घट चुके समय के गुंजित
शब्दों की हर भाषा.
ढूँढ़ रही है नवगीतों की
नई नई परिभाषा,
कागज के पन्नों पर हँस-हँस
धुन उपवन में
फूल लोढ़ती साँझ ।
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2-मुकेश बेनिवाल
बिछड़ने का डर है तो साथ ना माँग
तजुर्बा देते घावों से निजात ना माँग
अगर करेगा वफ़ा तो एक शख़्स ही बहुत
यूँ भीड़ करने को कायनात ना माँग
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3-चिनार बचाओ- रश्मि विभा
त्रिपाठी 'रिशू'
विकास-विनाश की
तेज़ रफ़्तार आँधी को
अपनी तटस्थता पर
खतरा महसूस कर रहा है
इमारतें उसकी
ऊँचाई से जल रही हैं
जब्त कर हरे मैदान सारे
हक़ पेड़ों का निगल रही हैं
कितने बवण्डरों से
अब तलक बचता रहा
मगर एक अदना- सी आरी से
अपना अस्तित्व
वह नहीं सहेज सका
आसमाँ को स्पर्श करता कद
कट गया इक झोंके में
जिसने हजारों तूफान झेले
आज धराशायी है
सूरज सुबह
जब झुरमुटों से झाँका
चौंक पड़ा
दर्द से पड़ा कराहता पेड़
उखड़ चुकी जड़ें जमींदोज
जहाँ सदियों से वह तटस्थ था
घनी छाया लिये
वहाँ अब
चिलचिलाती धूप के सिवाय
शेष कुछ भी नहीं बचा था
कई हिस्सों में काटा
तोड़ा, मरोड़ा, गलाया गया
लकड़ी का रूप-रुपांतरण
कागज़ों में
वो ढाला गया
जो नन्हे पत्ते शाख से बिछड़े
दु:ख उनका क्या जाने
किसने महसूस किया
कि उसी कागज़ के एक पन्ने पर
लिख दी पीड़ा उस चिनार की-
"चिनार बचाओ!"
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