पथ के साथी

Tuesday, April 30, 2019

898


1-बात कुछ थी नहीं 
      शशि पाधा 
  
   बात कुछ ऐसी न थी   
फिर भी कुछ हो गई 
अधर तक रुकी तो थी 
आँख क्यूँ भिगो गई |

कहा-सुना कुछ नहीं 
कुछ मलाल रह गया 
मौन के सैलाब में 
रिश्ता एक बह गया 
    बीच मझधार में 
    कश्तियाँ डुबो गई 
    बात कुछ हो गई|

पदचाप न, थी आहटें 
न धडकनों का राग था 
न लिखी इबारतें 
न आँसुओं का दाग था 

वक्त की किताब में 
 धरी, कहीं खो गई 
 बात ऐसी हो गई |

दो कदम रुके रहे 
क्या थी मजबूरियाँ
फासलों के दरमियाँ
बढ़ गई दूरियाँ

     बुझे बुझे अलाव में 
    अंगार सी बो गई 
    बात कुछ ऐसी न थी 
    फिर भी कुछ हो गई|

-0-
2- बिछड़कर डाल से
भावना सक्सैना

बिछड़कर डाल से
घूम रहीं है मुक्ति को
समा जाना चाहती है 
वो अंक में धरती के
कि चुकाने है
कर्ज़ ज़िन्दगी के।
ठौर मिलता नहीं
बावरी घूमें यहाँ-वहाँ
इस कोने से उस कोने
हवा पर सवार
कभी घुस आती हैं
बिल्डिंग के भीतर
कुचली जाती हैं 
भारी बूटों और 
पैनी लंबी हील से।
धरती उदास है
कि एक वक्त था जब 
शाख से जुदा हुई 
सुनहरी पत्तियाँ 
मचलती थीं
उसके वक्ष पर 
आलोड़ित होती
मृत्ति कणों में
होतीं उनमें एकाकार
उसका रोम रोम 
पुलक जाता था।
बरसते थे 
आशीष सैकड़ों
जैसे कोई माँ 
असीसती है
गलबहियाँ डाले 
अपने लाडलों को
आज चीत्कार रही धरती!!!
कि अपने आँचल के 
जिस छोर से
आश्रय दिया उसने
विकास की बेल को
उसने ढाँप दिया है
कोमल मृत्ति कणों को
और सिसक रही है
धरा बेहाल, ओढ़े 
सीमेंट-पत्थरों की चादर।
-0-

Saturday, April 27, 2019

897-सपनों की करुण पुकार !



कमला निखुर्पा

सपने रोज आवा देते है ,
सुनो…हमारे संग चलो ।
मन की घाटियाँ  सूनी हैं,
कुछ गीत नए गुनगुनाओ।
सपने पुकारते हैं , रुको, हमें भी साथ ले लो
पल दो पल के लिए ही सही
कल्पना के कैनवस पर कुछ रंग नए छिटकाओ।

सपने, रोज करते हैं शिकायत, देते हैं उलाहना
कि तुम कुछ सुनती ही नहीं
पढ़ती हो क्यों? कि जब तुम कुछ गुनती ही नहीं।
बस चलती रहती हो यूँ ही,
ज्यों दीवार में टकी बेजान सी घड़ी।

सपने बुलाते हैं, कहते हैं बार-बार
आ जाओ। !
नीले नभ में उड़ते बादलों ने गरजकर पुकारा है तुम्हें,
अपने पंख लो पसार।
दूर क्षितिज में इंद्रधनुष का सतरंगी झूला भी है
भर लो ऊँची पेंग ।

सपने टेरते हैं तुम्हें, भागो मत, रुको जरा,
छू लो मखमली घास को,
कोमल एहसास को,  पैरों से
अपने जूते तो उतार लो तुम।

तुम्हारी हड़बड़ी को देख, ये नन्हा सा बैंजनी फूल भी
पंखुड़ी फैलाकर हँस पड़ा
संग इसके तो मुसकरा लो तुम ।

वो देखो, चहक उठी है डाल पर बैठी वो चंचल चिड़िया,
सुनो जरा, वो क्या गा रही है।
अपने कानों से अब ये मोबाइल तो हटा लो तुम।

सपने देते रहते हैं आवा तुम्हें
पर तुम घिसती रही जूठे बर्तनों की मानिंद
पर चमक न पाई कभी।
तुम गुँथती रही आटे की तरह हरदम ,
आकार न ले पाई कभी।
हर रोज छिलती रही, कटती रही जिन्दगी तुम्हारी,
बासी तरकारी की तरह और बेस्वाद बन गई।

अब सपने आवा नही देते,
रोते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते है।
पर तुम्हे सुनाई नही देता उनका रोना ,बिसूरना।
तुम्हे तो नज़र आती है केवल, दीवार पे टँगी घड़ी,
जो घर-बाहर हर जगह तुम्हारे साथ है रहती ।
घड़ी की टिक-टिक में दबकर रह जाती है, सिसकी सपनों की।

जिंदगी की दौड़ में सरपट भाग रही हो तुम,
मुड़के तो देखो जरा,
सपने खड़े हैं अभी भी वहीं,
जहाँ बरसों पहले खड़े थे ।
इतनी दूर कि सुनाई नहीं देती तुम्हें,
अपने ही सपनों की करुण पुकार।
-0-
(12 अप्रैल-2011)


Thursday, April 25, 2019

896


स्वाति शर्मा

सिर्फ दाँत दिखाना ही ज़रूरी नहीं
मुस्कुराने के लिए
मन की प्रसन्नता भी ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
अपनों का साथ ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
उनके प्यार की सौगात ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
दो वक्त का खाना ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
मेहमानों का आना भी ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
दोस्तों का साथ होना ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
पुरानी तस्वीरें हाथ में होना ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
प्रभु की भक्ति भी ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
मन में इच्छा शक्ति ज़रूरी है
मुस्कुराने के लिए
-0-

Monday, April 22, 2019

895


प्रदूषण (अहीर छंद)
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।
संकट ये अति घोर।
मचा चतुर्दिक शोर।।

यह दारुण वन-आग।
हम सब पर यह दाग।।
जाओ मानव जाग।
छोड़ो भागमभाग।।

जंगल किए विनष्ट।
हता है जग कष्ट।।
प्राणी रहे कराह।
भरते दारुण आह।। 

धुआँ घिरा विकराल।
ज्यों  उगले विष व्याल।।
जकड़ जगत निज दाढ़।
विपदा करे प्रगाढ़।।
गूगल से साभार

दूषित नीर-समीर
जंतु समस्त अधीर।।
संकट में अब प्राण।
उनको कहीं न त्राण।।

विपद न यह लघुकाय।
शापित जग-समुदाय।।
मिल-जुल करें उपाय।
तब यह टले बलाय।।
-0-

Saturday, April 20, 2019

894-सपनों में भरनी है जान



डॉ.सुरंगमा यादव

सपनों में भरनी है जान
यदि बनानी है पहचान
क्षमताओं को अपनी जान
भर के देख फिर सही उड़ान
एक बार जो लेना ठान
उस पर ही करना संधान
धूप-ताप आए बरसात
मन की छतरी लेना तान
खुद बनना अपनी प्रेरणा
हालात पर नहीं बिफरना
पीछे मुड़कर नहीं निरखना
भ्रमजाल भी जाने कितने
मिल जाएँगे पथ में
मगर तुझे है बढ़ना
अपनी ही धुन में
गहराए यदि कहीं अँधेरा
मुसकानों के दीप जलाना
मन-सुमन खिलाए रखना
निश्चित है मंजिल को पाना
-0-

Wednesday, April 17, 2019

893


रमेश राज
1-कुण्डलिया
जनता युग-युग से रही भारत माँ का रूप 
इसके हिस्से में मगर भूख गरीबी धूप
भूख गरीबी धूप, अदालत में फटकारें 
सत्ता-शासन रोज, इसे पल-पल दुत्कारें
बहरी हर सरकार, चलो कानों को खोलें 
जनता की जय आज, आइये हम सब बोलें
-0-
2-दुर्मिल सवैया छंद में तेवरी
[ आठ सगण=112  के क्रम में 24 वर्ण ]
इस कोमल से मन को मिलता, अपमान कभी, विषपान कभी
सुख से न रही पहचान कभी, मुख पै न सजी मुसकान कभी। 

मन को दुःख के अनुप्रास मिले, सच को जग में उपहास मिले
रचती मुरली मधुतान कभी, हम भी बनते रसखान कभी।

हमको कटु से कटु भाव मिले, अलगाव मिले, नित घाव मिले
मधुमास-भरे, अति हास-भरे, हम पा न सके मधुगान कभी।

अभिवादन बीच सियासत है, दिखने-भर को बस चाहत है
जग बादल-सा छल में झलका, गरजा न कभी-बरसा न कभी।


-0-

Saturday, April 13, 2019

892


फिर से राम चले वन पथ पर
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


अंधकार ये कैसा छाया
सूरज भी रह गया सहमकर
सिंहासन पर रावण बैठा
फिर से राम चले वन पथ पर ।

लोग कपट के महलों में रह,
सारी उमर बिता देते हैं
शिकन नहीं आती माथे पर
छाती और फुला लेते हैं
कौर लूटते हैं भूखों का
फिर भी चलते हैं इतराकर।

दरबारों में हाजि़र होकर,
गीत नहीं हम गाने वाले
चरण चूमना नहीं है आदत
ना हम शीश झुकाने वाले
मेहनत की सूखी रोटी भी
हमने खाई थी गा ­गाकर

दया नहीं है जिनके मन में
उनसे अपना जुड़े न नाता
चाहे सेठ मुनि ­ज्ञानी हो
फूटी आँख न हमें सुहाता
ठोकर खाकर गिरते पड़ते
पथ पर बढ़ते रहे सँभलकर
-0-  सितम्बर 2008

Thursday, April 11, 2019

891


डॉ. पूर्वा शर्मा
1.      
जबसे तुझसे हूँ मिली
मैं खुद से ना मिली ।
2.      
महकती  हैं खुशियाँ
ज़िन्दगी के हर कोने में
बस महसूस कीजिए ।
3.      
हौले-हौले दरारों से
 रिस रही थी खुशियाँ
 सहसा ज़िंदगी का दर खोल
 यूँ बिन कुछ बोल
 ये ज़िद्दी चिपकू दुःख
 आ ही धमके ।   
4.      
तुम्हारे इंतज़ार में
बेइंतहा बेकरारी
सुकूँ भी साथ में
कि अब मुलाकात
तय है हमारी  
5.      
साल दर साल, बीतते गए
पर वो लम्हा नहीं बीता
जो तेरे साथ था बीता
           तू मेरे ख़्वाबों में जीता 
6.      
तू दफन है मेरे सीने में कुछ इस तरह
कि साँसें चल रही है सिर्फ तेरे ही दम पर ।
7.      
वो अपनी तड़प को लफ़्ज़ों में बयाँ कर चले
हमें ना हर्फ़ मिले, ना आँखों ने साथ दिया ।
8.      
तुम पर कौन-सा रंग डालूँ कान्हा ?
मैं तो खुद ही रँगी हूँ तुम्हारे रंग में ।  
9.      
रात भर नींद नदारद
कभी मिलने की बेसब्री में
कभी मिलन के सुकूँ में ।
10.  
दिल से महफूज़ कोई जगह नहीं,
देख लो ... तुम आज तक महफूज़ हो यहाँ ।
11.  
तू साथ है तभी तो चल रही है ये ज़िंदगी
ये बात और है कि तू सिर्फ ख्यालों में साथ है ।
12.  
थमता  नहीं
किसी के चले जाने से
ये गतिमान जीवन,  
बस कटने लगता है  
बेरंग, बेजान, बेमतलब,
फीका एवं निराधार-सा ।