पथ के साथी

Thursday, January 31, 2008

महात्मा और डाकू

एक महात्मा जी और एक डाकू को चित्रगुप्त के सामने पेश किया गया । चित्रगुप्त ने अपना बहीखाता खोला। गम्भीर स्वर में बोले–‘‘महात्मा जी, आपने अपने जीवन में तीन–चौथाई पुण्य किए हैं और एक–चौथाई पाप। कौन–सा भोग आपको पहले चाहिए?’’
महात्मा जी संयत स्वर में बोले–‘‘पापों का फल पहले भोग लूँ। उसके बाद तो स्वर्ग का आनन्द प्राप्त होगा ही।’’
चित्रगुप्त ने डाकू की ओर संकेत किया–‘‘अब तुम बतलाओ। तुमने तीन–चौथाई पाप किए हैं और एक चौथाई पुण्य।’’
डाकू चुप रहा।
महात्मा जी मुस्कराए।
‘‘कहिए, तुम्हें पहले क्या चाहिए?’’ चित्रगुप्त ने टोका।
नरक–यातना तो भोगनी ही है। पहले स्वर्ग का आनन्द क्यों न उठा लूँ?’’
‘‘ठीक है। यमराज जी से अन्तिम स्वीकृति लेकर व्यवस्था करा देता हूँ।’’
डाकू ने प्रसन्नता प्रकट की और बढ़कर चित्रगुप्त जी से खुसर–पुसर की।
तत्पश्चात् महात्मा जी को नरक के यातना केन्द्र पर भेज दिया गया और डाकू को स्वर्ग में। आज तक दोनों नरक तथा स्वर्ग भोग रहे हैं।

संस्कार

साहब के बेटे और कुत्ते में विवाद हो गया। साहब का बेटा कहे जा रहा था–‘‘यहाँ बंगले में रहकर तुझे चोंचले सूझते हैं। और कहीं होते तो एक–एक टुकड़ा पाने के लिए घर–घर झाँकना पड़ता। यहाँ बैठे–बिठाए बढ़िया माल खा रहे हो। ज्यादा ही हुआ तो दिन में एकाध बार आने–जाने वालों पर गुर्रा लेते हो।’’
कुत्ता हँसा–‘‘तुम बेकार में क्रोध करते हो। अगर तुम भिखारी के घर पैदा हुए होते तो मुझसे और भी ईर्ष्या करते। जूठे पत्तल चाटने का मौका तक न मिल पाता। तुम यहीं रहो, खुश रहो, यही मेरी इच्छा है।’’
‘‘मैं तुम्हारी इच्छा से यहाँ रह रहा हूँ? हरामी कहीं के।’’ साहब का बेटा भभक उठा।
कुत्ता फिर हँसा–‘‘अपने–अपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। मुझे कार में घुमाने ले जाते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकर–चाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते–बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर ज़रूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।’’
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।

मुखौटा

नेताजी को चुनाव लड़ना था। जनता पर उनका अच्छा प्रभाव न था। इसके लिए वे मुखौटा बेचने वाले की दूकान में गए। दूकानदार ने भालू, शेर, भेडिए,साधू–संन्यासी के मुखौटे उसके चेहरे पर लगाकर देखे। कोई भी मुखौटा फिट नहीं बैठा। दूकानदार और नेताजी दोनों ही परेशान।
दूकानदार को एकाएक ख्याल आया। भीतर की अँधेरी कोठरी में एक मुखौटा बरसों से उपेक्षित पड़ा था। वह मुखौटा नेताजी के चेहरे पर एकदम फिट आ गया। उसे लगाकर वे सीधे चुनाव–क्षेत्र में चले गए।
परिणाम घोषित हुआ। नेताजी भारी बहुमत से जीत गए। उन्होंने मुखौटा उतारकर देखा। वे स्वयं भी चौंक उठे–वह इलाके के प्रसिद्ध डाकू का मुखौटा था।