1- डॉ. शिप्रा मिश्रा
1. बिछिया
उस
विवाह में
हम
भी हुए थे निमंत्रित
भरपेट
खाए थे भोज
और..
मन
भर मिठाइयाँ भी
एक
साड़ी, टिकुली, सेनूर,
आलता
भेंट भी कर आए थे
और..
एक
जोड़ी बिछिया भी..
कलेजे
का टुकड़ा थी वह
मेरी
छात्रा नन्दिनी
जन्मजात
तेजस्विनी
ऊर्जस्वित, निष्ठावान
मृदुभाषी, सौम्य, शिष्ट
उसकी
मौन, मूक आँखों ने
अनेक
बार
मेरे
सबल संबल को
निरर्थक
ढूँढने को
छटपटाती
रही
मेरे
मजबूत आलिंगन में
सुरक्षित, संरक्षित होने को
कसमसाती
रही
परन्तु..
परंपराओं
के नाम पर
चढ़ा
दी गई बलि
और..
स्वर्णिम
भविष्य का
एक कोरा
पन्ना
बेरंग
बन कर रह गया
अलिखित, अचित्रित
जानबूझकर
अनजान बनने का
देख
कर भी अनदेखी करने का
समझ
कर भी नासमझी का
इससे
सुन्दर स्वांग भला
और
क्या हो सकता था
एक
नाबालिग नन्दिनी
अपने
तीन बच्चों समेत
जब
मेरे समक्ष आती है
उसकी
मौन में भी
कई
अनुत्तरित प्रश्न
हाहाकार
मचाए रहते हैं
वह
बिछिया आज तक
मेरे
कलेजे में चुभती है
और..
कर
देती है लहूलुहान
मेरे
स्त्रीत्व को,
अस्तित्व
को, गुरुत्व को
अदृश्य
चुनौती देती है
काश!
मैं उसे बचा पाती
उस
दैहिक, दैविक, भौतिक
प्रताड़ना
से
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2. पुनर्नवा सृष्टि
सद्यःजात
कन्या
उतरती
है अवनि के
मृदु
अंक में
किलकती, चहकती,
ठुनकती, खिलखिलाती,
हँसती, मुस्कुराती
न
जाने कब, कैसे
परिवर्तित
होती है
एक
संपूर्ण स्त्री में
तत्पश्चात..
सृजती
है अथक,
अविराम, अनवरत
एक
विस्तृत, मनमोहक,
मुग्ध, अलौकिक संसार
पुनश्च..
उसी
स्वयंभू संसार से
लड़ती, भिड़ती,
जूझती, टकराती,
टूटती, बिखरती
चूर-चूर
होती
हो
जाती है समाहित
उसी
भूमि में,
पुनः
आत्मसात्
और
लेकर
पुनर्जन्म
होती
है पुनर्नवा
निकल
पड़ती है अविराम
अपने
अमूल्य सृजन को
सृष्टि
का चक्र
ऐसे
ही चलता रहेगा
होती
रहेगी नित्य, अर्वाचीन
वरदायिनी
सृष्टि
देह
मिट जाती है
सृष्टि
नहीं मिटती
सृजन
शाश्वत है
बनाए
रखता है
भूमि
को सदैव
मातृवत्सला, नववधू
डॉ.अरुणा
1.
मैं अपने पथ पर
सूर्य की परिक्रमा करती
यह पृथ्वी हूँ,
जिसने तुम्हारे
सभी कर्मों को
धारण किया।
तुम विश्वास नहीं करोगे शायद
किंतु मैं
अनंत तक ब्रह्माण्ड में फैली
वो आकाशगंगा हूँ
जिसने तुम्हारे सारे दुखों को
अपने में समा लिया है।
तुम्हें मानना ही होगा
मुझे सुखदायी प्रकृति
जो हजारों प्रसवों की
पीड़ा को सहकर
तुम्हें जीवनदान देती है।
चलो कुछ न मानों पर
तुम मुझे इंसान तो
मान ही सकते हो।
2.
प्रतीक्षारत मैं खड़ी हूँ,
घर कि देहरी पर,
तुम्हारा आना अनिश्चित है,
किंतु मेरा इंतजार करना सुनो,
सदियों के लिये निश्चित है,
अंतर्विरोधों के गहनतल पर
एक आस फिर जगती है
मेरा जीर्ण शरीर, सह लेगा
मौसमों का परिवर्तन, क्योंकि
तुम्हारी यादों के प्रेम के पलों में
सदा के लिए बँधी हुई है
मेरी आत्मा, जो लौकिक देह
कि सीमाओं से मुक्त है,
देहरी की सीमाओं को लाँघ
तुम्हारी हथेलियों का स्पर्श पाकर
तुम्हारे ह्रदय के विस्तार में
झरना बनकर गिरना चाहती हूँ,
गाना चाहती हूँ उन अनगढ़ गीतों को
जिन्हें मैंने मन के कागज़ पर ढाला।
सुनो मैं प्रतीक्षारत वहीं ठहरी रही
उदास शामें कभी कभी मुस्कुराती है
क्षीण से क्षणों में मौन बहता है
नीला नभ भी हरा हो उठता है तब,
सूर्य अपने ताप को कम कर,
चूम लेता है साँझ की उदास हथेलियों को।
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3. वेश्या
होना.....
कौन थी मैं
कहाँ से आई थी,
नहीं जानती
शायद चुरा ली गई थी,
किसी गरीब के झोंपड़े से
मानसिक प्रताड़ना,
दैहिक मारपीट
यौन अत्याचार,
सब सहा, और कर दिया गया
मेरा ब्रेनवाश,
नाचने गाने और
शरीर बेचने को तैयार,
हां धंधेवाली कहते हो,
तुम फिर भी चले
आते हो मेरे वेश्यालय में
बहाना यह कि शरीर की
जरूरत है, भोगते हो मुझे
भूख, प्यास, कपडे़-लत्ते की तरह,
परोसी जाती है मेरी देह
रोज किसी थाली में
लजीज भोजन की तरह,
नहीं तुम नहीं जानते
क्या है वेश्या होना............
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