पथ के साथी
Tuesday, January 30, 2018
Sunday, January 28, 2018
795
बसंत
पुष्पा मेहरा
उतरी ओढ़नी धुंध की
निखरा रूप धरा का
डाल-डाल पर खिल गईं कलियाँ
नव जीवन मुस्काया,
रंग मन में भर आया ।
फूल–फूल पर किरण नाचती
हवा सुखद मनभावन बहती
राग-रंग से भर कर उड़ती
रंगीं पाखों की टोली ,
प्रेम-रंग में भीगी छतरी
गुलमोहर ने तानी ,
रोम–रोम हरषाया
सखि ! बसंत आया ।
अमलतास ने माँगी हल्दी
पीताम्बर रंग लाया
लो बसंत आया ।
बूट–बाल की झाँझ बज उठी
खेतों ने भी झूम-मल्हार गाया,
तान मदिर भौरों ने छेड़ी
अम्बर भी मुस्काया
मन झूम–झूम हरषाया
लो ! अनंगआया ।
हवा रच रही छंद मधुर
मन धरती का डोला
फूले पलाश की चितवन से
नशा निराला छाया
काम ने मन में राग भर दिया
मन विरही-दहकाया
सखि!बसंत आया ।
आमों की डालों पर
सजे देख बौरों के झूमर
कोकिल विरही कूका,
पा सुगंध भरा झोंका
पात–पात बौराया
देख के,मन हरषाया
सखि!बसंत आया ।
शीत के आँसू पोंछ बसंत
प्रीति की रीति निभाता
फ़गुआ गाता,विरहा गाता
रंगों के डोल बहाता
प्रकृति-नूर रंग लाया
देखो फिर बसंत आया ।
-0-
Pushpa.mehra
@gmail.com
Saturday, January 27, 2018
794
1- कुण्डलिया
ज्योत्स्ना प्रदीप
ज्योत्स्ना प्रदीप
सरहद के उस पार पर ,बड़ा अजब है फाग ।
होली खेले रात दिन ,मन में लेकर आग।।
मन में लेकर आग ,बहाए रंग अनूठे।
छ्लनी बैरी-देह, वतन की खुशियाँ लूटे ।।
विजय घोष के संग ,मात का दिल है गदगद।
लिखती है नव गीत ,हमारी प्यारी 'सरहद' ।।
-0-
2-हरियाणा साहित्य अकादमी-परिष्कार कार्यशाला के विद्यार्थी
1-पूनम
1
सत्य है सदियों
पुराना, बात ना
कोई नई,
प्रश्न है अब एकता
का, और ना
कोई भी जवाब,
माँगता है वक्त
हमसे, गुज़रे
लम्हों का हिसाब।
था कभी ऐसा ज़मी पर, धर्म था ना जात थी,
प्रेम ही था एक
नारा, साथ की
ही बात थी,
प्रेम ही इक मूल था, ना विद्वत्ता का था नकाब
माँगता है वक्त
हमसे.....
टूटती- सी जा रही, विश्वास की अब हर कड़ी,
बढ़ रहा है भेद ही, अब इस ज़मी पर हर घड़ी,
ना रही इंसान में, इंसानियत की कोई आब
माँगता है वक्त
हमसे.....
चाहतों की भीड़ में
ही, छिप गई
खामोशियाँ,
जिस्म में ही दब गई
है, रूह की
अब सिसकियाँ,
बह रहा तन्हाइयों
का, अब यहाँ
रग में सैलाब,
माँगता है वक्त
हमसे.....
हम चले जो खुद को
फिर, वक्त
भी दोहराएगा,
मोतियों की माल सा, राष्ट्र ये बंध जाएगा
नहीं रहेगा धड़कनों
पे, दासता
का अब हिजाब
माँगता है वक्त
हमसे.....
-0-648/2 दयाल सिंह कॉलोनी, नज़दीक अलमारी फैक्टरी, सिसाय रोड़, हांसी- 125033-0-
-0-
2-माहिया-राहुल लोहट
1
मन्दिर ना मालिक
वो तन में बसता है।
2
महफिल खिल जाएगी
चलकर तो देखो
मंजिल मिल जाएगी।
3
ना धन ना माया में
सुख बस मिलता है
अपनों की छाया में।
4
वो बात निराली है
अपने बचपन की
सौगात निराली है।
5
अब सुख की बारी है
हिम्मत के आगे
हर मुश्किल हारी है।
6
दु:ख सुख में ढलता है
रात अगर है तो
दीपक भी जलता है।
7
भँवरे जैसे जीना
खींच रिवाजों से
मानवता रस पीना।
8
तुम मान कहो इनको
बेटी है बेटी
मत दान कहो इनको।
9
खुशबू में खोया हूँ
धरती माता के
कदमों में सोया हूँ।
10
माटी ये चन्दन है
मेरी धरती माँ
चरणों में वन्दन है।
-0- राहुल लोहट
गांव -खरड़वाल,तहसील-नरवाना ,जिला -जीन्द
Email--wrrahulkumar@gmail.com
Friday, January 26, 2018
793
काश!
तुम जी लेती
प्रो0 इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी
नन्ही -सी
कली थी,
कल ही तो
खिली थी।
आँखों
में लिये सपने,
कैसे
होंगे उसके अपने?
बिंदास
अंदाज से भरी,
प्रीत-प्रेम
भाव से भरी ।
एक बन्धन
की स्वीकृति,
अनजाने
रचती हुई कृति।
सब कुछ
ठीक- ठाक था,
अनवरत-
सा दिन- रात था।
धीरे-
धीरे गुमशुम होती रही,
आँखों
में वो चमक न रही।
किसी ने
न दिया ध्यान
अपने भी
बने रहे अंजान।
कभी नहीं
की कोई शिकायत
किसी से कोई नहीं शिकायत।
अनमने
करती रही प्रयाण
खोजते
रहे जीवन के प्रमाण।
खुला जब
छुपा- सा तमाशा,
भाव
उमड़े थे तब बेतहाशा ।
आत्महत्या
नोट ,खुला
राज,
क्यों
बेजुबान बने सब आज।
ये छद्म
रूप था अपनों का,
मत देना
अधिकार मेरे सपनों का।
नहीं
अधिकार उन्हें अब कोई,
बेअसर थे, जब
मैं फूटकर रोई।
दाह
संस्कार, न करे वो स्पर्श,
जीते जी
दिया जिसने भाव -दंश।
हिंसा बस
मारपीट ही नहीं होती,
नैसर्गिक
ख़ुशी पर रोक भी होती।
पर
काश!तुम न हारती,
काश तुम
जिन्दा रह लेती।
अपनी
लड़ाई लड़ तो लेती,
एक इतिहास रच तो लेती.....।
-0- प्रो0
इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी
(विभागाध्यक्षा,दर्शनशास्त्र विभाग,हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर
गढ़वाल उत्तराखण्ड)
Monday, January 22, 2018
792
मुकद्दमा
-डॉ.
कविता भट्ट
अरे साहेब!
एक मुकद्दमा तो
उस शहर पर भी बनता है
जो हत्यारा है–
सरसों में
प्रेमी आँख-मिचौलियों का
और उस उस मोबाइल को
भी घेरना है कटघरे में
जो लुटेरा है–
सरसों
सी लिपटती हँसी-ठिठोलियों का
उस एयर कंडीशन
की भी रिपोर्ट लिखवानी है
जो अपहरणकर्त्ता है-
गीत गाती पनिहारन सहेलियों का
और उस मोबाइल को भी
सीखचों में धकेलना है
जो डकैत है-
फुसफुसाते होंठों-चुम्बन-अठखेलियों का
उस विकास को भी थाने
में कुछ घंटे तो बिठाना है
जिसने गला घोंटा;
बासंती गेहूं-जौ-सरसों की बालियों का;
लेकिन इनका वकील खुद
ही रिश्वत ले बैठा है
फीस इनसे लेता है;
और पैरोकार है शहर की गलियों का
ओ साहेब!
आपकी अदालत
में पेशी है इन सबकी
कुछ तो हिसाब दो -
उन
मारी गयी मीठी मटर की फलियों का
Saturday, January 20, 2018
791
1-अब लिखती नहीं कविताएँ
सत्या शर्मा ' कीर्ति '
कि आजकल मैं
लिखती नहीं हूँ कविताएँ
क्योंकि रोप दिए हैं मैंने
उसके नन्हे बीज
अपने हृदय की उर्वर भूमि में ।
जहाँ निकलते हैं रोज नाजुक-सी कोंपल ,
क्योंकि रोप दिए हैं मैंने
उसके नन्हे बीज
अपने हृदय की उर्वर भूमि में ।
जहाँ निकलते हैं रोज नाजुक-सी कोंपल ,
चटकती हैं कलियाँ और खिलते हैं फूल
फिर महक-सी जाती हूँ मैं
चम्पा और गेंदे की खुशबू से ।
सूरज की नन्ही-सी किरणें खेलती है
फिर महक-सी जाती हूँ मैं
चम्पा और गेंदे की खुशबू से ।
सूरज की नन्ही-सी किरणें खेलती है
जब उन पंखुड़ियों से और
सहलाती है शब्दों की
किसी नई पौध को
तो खिल सी जाती हूँ मैं और
फिर नहीं लिखती हूँ कविताएँ
रोप देती हूँ भावों को
देती हूँ पनपने गुलमोहर डालियों को
देखती हूँ छुपकर
आता है चन्दा
उतरता है पालकी से
और बिखेरता है रंग
किसी नई पौध को
तो खिल सी जाती हूँ मैं और
फिर नहीं लिखती हूँ कविताएँ
रोप देती हूँ भावों को
देती हूँ पनपने गुलमोहर डालियों को
देखती हूँ छुपकर
आता है चन्दा
उतरता है पालकी से
और बिखेरता है रंग
उन नन्ही कोंपलों पर ।
फिर मैं मूँद लेती हूँ आँखें
बहने देती हूँ शब्दों को
अपनी ही सुगंधित बयार में
कई बार चुपके से आती है लहरें
छुपकर अपनी सखी नदियों से
और निखार देती भावों की
कच्ची पंखुड़ियों को
धो देती है उन पर लिपटे निरर्थक
जज्बात को ।
हाँ , अब लिखती नहीं हूँ
कविताएँ, देती हूँ उन्हें पनपने और
बहने देती हूँ शब्दों को
अपनी ही सुगंधित बयार में
कई बार चुपके से आती है लहरें
छुपकर अपनी सखी नदियों से
और निखार देती भावों की
कच्ची पंखुड़ियों को
धो देती है उन पर लिपटे निरर्थक
जज्बात को ।
हाँ , अब लिखती नहीं हूँ
कविताएँ, देती हूँ उन्हें पनपने और
खिलकर निखरने ।
फिर ....
उन्हें हौले से तोड़कर
बनाती हूँ कोमल भावों का
एक खूबसूरत गुलदस्ता।
--0—
फिर ....
उन्हें हौले से तोड़कर
बनाती हूँ कोमल भावों का
एक खूबसूरत गुलदस्ता।
--0—
2-ज्योत्स्ना प्रदीप की कविताएँ
सरस्वती वंदना (चौपाई)
विद्यारूपे ! श्लोक
,मंत्र में ,
तेरी लय हर वाद्य यंत्र में।
वेद, ऋचा हर मधु
प्रसाद सा,
आखर -आखर ताल नाद सा ।
हे शुभदे ! तुम नभ -भूतल में,
नग ,पर्वत में
सागर जल में ।
अमिट मधुर सी इक सरगम है,
हर पल तेरा आराधन
है ।
जग छल से माँ आँसू छ्लके,
आँखें ना ही दोषी पलकें ।
फिर से ना हो सुख ये कीलित,
शान्ति कान्ति दो सुखद अपरिमित।
जीवन जब भी सघन निशा है,
तेरे पग-तल दिव्य
-दिशा है।
मिटे तिमिर वो विमल छंद दो,
महातारिणी
महानंद दो ।
-0-
सवाल देश मान का!(प्रमाणिका छंद)
ज्योत्स्ना प्रदीप
चलो -चलो रुको नहीं ।
कभी नहीं झुको नहीं।।
उमंग है तरंग है ।
उछाह अंग -अंग है ।।
हिया बना चिराग है।
बड़ी अजीब आग है।।
नहीं कभी हताश हो ।
सुदूर भी प्रकाश हो ।।
सलीम या दिनेश है ।
अनेक वेश ,भेष
है।।
मिले सभी गले
चलो ।
नहीं छलो बढ़े चलो।।
पुकार प्रीत की सुनो ।
न फूल ,शूल को चुनो।।
न वेदना ,न पीर
हो ।
हिया नहीं अधीर हो।।
न द्वेष ,लोभ ,क्रोध हो ।
न जात का विरोध हो।।
सवाल देश आन का ।
सवाल देश मान का ।।
-0-
3- तुम और कविता
मंजूषा मन
पता नहीं क्या हो जाता है
आजकल
कि जब भी सोचा
लिखूँ कोई कविता...
आँखों में तैरने लगी
तुम्हारी ही तस्वीर
तुम ले लेते हो कविता का रूप।
तुम चाँद की तरह बने रहे
मन के आकाश में,
मन पर जब छाए दर्द के बादल
तुम चाँद बन जगमगाते रहे।
अब अँधेरा छुप गया है
काजल की डिबिया में।
हवा बनकर तुम ही
बहते रहे साँसों के आने और जाने में
तुम खुशबू बनकर महकते
रहे जीवन में।
मन के जंगल में तुम्हारे ही सपने
नन्हे नन्हे हिरन के छौने बन
धमाचौकड़ी मचाते हैं...
और तुम्हारी ही आहट पाकर
छुप जाते हैं किसी ओट में।
तुम सिखा रहे हो जीना
उन आशाओं को
जो छोड़ चुकी थी उम्मीदों का दामन।
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