रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बाहर भीतर कोलाहल है
ढेर गरल, कुछ गंगाजल है।
सबको में पहचानूँ कैसे
ढेर गरल, कुछ गंगाजल है।
सबको में पहचानूँ कैसे
सबके द्वार मची हलचल है।
दर्पण-सा मन बना ठीकरा
जग में माटी के चोले का ।
दो कौड़ी भी दाम मिला ना
अरमानों के इस झोले का।
बरसों बीते पत्र पुराने
झोले में थे खूब सँभाले।
जिनका अता-पता ना जाने
उनको कैसे करें हवाले।
छाया-हिमांशु |
कोई
तो बस दो पल दे दे
खुद से ही कुछ कर लें बातें
अब उनसे क्या कहना हमको
दी जिस-जिसने काली रातें।
खुद से ही कुछ कर लें बातें
अब उनसे क्या कहना हमको
दी जिस-जिसने काली रातें।
मेपल से भी कभी पूछना
निर्जन वन है कैसे भाया
पतझर जब आ बैठा द्वारे
कैसे उसने पर्व मनाया!
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