पथ के साथी

Saturday, November 27, 2021

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 अनिमा दास ( कटक, ओड़िशा)

सॉनेट

1-मैं एवं तुम

 

मैं यदि अदीप्त वर्तिका- सी तुम आलोकमय प्रेम प्रदीप


मैं तीर लाँघती ऊँची लहर यदि
, तुम निश्चल पर्वत अटल

मैं हूँ क्रंदनरत अधरों के अस्पष्ट शब्द का शून्य अंतरीप

हो तुम विस्तृत आकाशगंगा का प्रकाशमान दिव्य पटल

 

तुम हो अनुरक्त ज्योत्स्ना के स्निग्ध स्पर्श से झरते तुषार

सिक्त शैवाल  का भग्न मोह -सा अनासक्त प्राचीन  कवि

मैं शून्य विग्रह में अश्रुत  अंतर्नाद का  विक्षिप्त  आकार

हूँ मैं एकाकी हृदय में क्षुब्ध अरुणी की अर्ध अंकित छवि

 

मैं कालगर्भ में समाहित जीवंत अक्षरों की अपूर्ण कहानी

एक अभाषित कल्पना की हूँ असह्य करुण रिक्त कविता

तुम आद्य सृष्टि में अंतर्हित स्वर्गीय श्लोक के  चिर ध्यानी !

हो तुम जगत विदित नित्य भासित वह्निमय पूर्ण सविता

 

भ्रम मूर्ति को कर त्याग मैं आज, देवालय मुक्त हो जाऊँ

मैं ईश्वर नहीं हूँ, अहं का विश्व हूँ, मृतवत् मैं  भी सो जाऊँ ।

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कविताएँ

1-स्वयंसिद्धा

 

मुझे उच्छृंखल न कहो...

तुम पुरुषत्व की नारीत्व के साथ 

तुलना भी न करो

 

जैसे तुम नहीं अनुभव करते

क्षत का क्षरण

वैसे मुझे भी नहीं होता अनुभूत

स्वेद सिक्त रण

 

तुम किसी भी रूप में

अहंकारी रहोगे; क्योंकि 

यह तुम्हारी है मौलिक प्रकृति 

किंतु मैं रहूँगी

स्वयंसिद्धा किसी भी स्थिति में

 

मैं नहीं होऊँगी निंदित

किन्हीं प्राकृतिक कारणों द्वारा

किंतु तुम्हारा पश्चाताप

शुष्क चक्षु विवर में

विवशता लिये

मेरा अवश्य करेगा

अन्वेषण...

यह मुझे आदिम युग से

है ज्ञात...

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2-क्लांत मैं  

 

पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए

श्रांत- क्लांत मयंक से 

यह प्रश्न न करो

कि आज इस सरोवर में 

क्यों उसका मुखमंडल 

दिखता मलिन 

क्यों अनेकों विचारों में है वह 

तल्लीन

 

कई वर्षों में एक बार 

सुगंधित पारिजात- सा 

जब हृदय- उपवन महक उठे 

तो यह प्रश्न न करो 

कि क्यों आज इस 

तपस्विनी देह पर है 

बासंती मधुरिमा 

क्यों विरही मन में खिल उठी 

पूर्णिमा

 

वारिदों में नित्य होते 

घनीभूत कई जल बिंदु

कई नद होते समर्पित 

उदधि की तरंगों में 

कई कलिकाएँ 

उत्सर्ग होतीं संसर्ग में

ये स्वयं ही आवेष्टित हैं 

अनंत प्रश्नों से

एवं उत्तरित हैं एकांत की शून्यता में।  

 

परंतु, नित्य दिवा-रश्मि में 

तपती स्वर्णिम बालुका को 

कर नहीं पाती यह प्रश्न 

कि क्यों दहनशील हैं 

तुम्हारी आकांक्षाएँ

क्यों करती प्रतीक्षा शीतलता की 

तुम्हारी विवक्षाएँ

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animadas341@ gmail.com

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