अनिता मण्डा
जंगल
के पेड़ों की तरह
हमें
सँवारा गया
बगीचे
की क्यारियों -सा
जहाँ
हम उगे, पले, बढ़े
छोड़नी
पड़ी जगह, जड़ें
बिना
आह ,शिक़वे के
जो
भी मिला बागबाँ
हमने
वो अपना लिया
तभी
तो बेतरतीब से
नहीं
सहा विस्थापन
थोड़े
संवेदनहीन से
उभर
आता है जंगलीपन
सभ्यता
के मुखौटों के बीच
छुपाते
हम अपना तन –मन
आँखों
की चौखटों के बीच।
-0-
(चित्र गूगल से साभार)
(चित्र गूगल से साभार)