पथ के साथी

Wednesday, January 21, 2009

छन्द कहीं नहीं गया था

छन्द कहीं नहीं गया था
छन्द कहीं नहीं गया था ,जो वापस आ गया हो । हाँ इतना ज़रूर हुआ है कि छन्दहीनता (छन्दमुक्तता नहीं)ने हिन्दी पाठकों के मन में कविता के प्रति वितृष्णा भर दी है ।स्थापित कवि अपनी घटिया कविता(बकवास कहना ज़्यादा सार्थक होगा)से कविता के सही पाठकों को दूर खदेड़ने का काम कर रहे हैं। नई दुनिया की 18 जनवरी की पत्रिका देख लीजिए ।इस अंक में अरुण कमल जी की एक अच्छी कविता 'इच्छा थी' देखी जा सकती है ।इसी पृष्ठ पर दूसरी कविता ? 'आराम कुर्सी' भी है ,जिसे पढ़कर लगता है कि कवि के पास लिखने के लिए कुछ नहीं बचा है। अरुण कमल की ज़गह कोई और नाम होता तो कविता रद्दी की टोकरी में मिलती । पाठ्यक्रम में भी इस तरह की कविताएँ बहुत मिल जाएँगी ;जिन्होंने कविता के पाठकों को बहुत दूर कर दिया है । अच्छी कविता में लय स्वत: आती है, चाहे वह छन्दयुक्त हो चाहे छन्दमुक्त ।छन्द के नाम पर भी तुक्कड़ कवि बहुत कुछ ईंट-पत्थर पाठकों के सिर पर पटकते रहते हैं। बेहूदा लिखने वालों ने प्रकाशकों को भी इसीलिए कविता की पुस्तकों के प्रकाशन से डरा दिया है । आज भी उतम रचनाकारों की कमी नहीं ;पर उन्हें उनके अनुरूप स्थान नहीं मिल पाता है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'